ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में आगमन: व्यापार से शासन तक का सफर और स्वतंत्रता संग्राम की नींव | The Rise of British Empire in India: Journey from Trade to Rule and the Foundation of Freedom Struggle

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I. प्रस्तावना: सोने की चिड़िया पर यूरोपीय नज़र (Introduction: European Gaze on the Golden Bird)


भारत, जिसे प्राचीन काल से 'सोने की चिड़िया' के नाम से जाना जाता था, अपनी अपार धन-संपदा, उत्कृष्ट गुणवत्ता वाले मसालों, कपास, रेशम और अन्य मूल्यवान वस्तुओं के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध था. काली मिर्च, इलायची, दालचीनी, नील रंग, चाय और अफीम जैसे उत्पाद यूरोपीय बाजारों में अत्यधिक मांग में थे. विशेषकर मसालों का उपयोग भोजन को संरक्षित करने और औषधीय प्रयोजनों के लिए किया जाता था, जिससे उनकी मांग और भी बढ़ जाती थी. यह आर्थिक आकर्षण ही यूरोपीय शक्तियों को भारत की ओर खींच लाया, क्योंकि उनका प्राथमिक उद्देश्य सस्ते दामों पर भारतीय माल खरीदकर यूरोप में ऊँची कीमतों पर बेचकर भारी मुनाफा कमाना था.


15वीं शताब्दी से पहले, यूरोप और एशिया के बीच व्यापार मुख्य रूप से स्थलमार्गों, जैसे कि प्रसिद्ध सिल्क रोड, के माध्यम से होता था. ये मार्ग केवल समय लेने वाले और महंगे थे, बल्कि उन पर अरब और अन्य मुस्लिम व्यापारियों का एकाधिकार भी था, जिससे यूरोपीय शक्तियों के लिए सीधे व्यापार करना मुश्किल हो जाता था. इस व्यापारिक बाधा को दूर करने और सीधे भारतीय बाजारों तक पहुँचने की तीव्र इच्छा ने नए समुद्री मार्गों की खोज को अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया. पुर्तगाली शासकों को पूर्व के रास्तों की सामुद्रिक जानकारी की गहरी इच्छा थी, और इस खोज ने यूरोपीय शक्तियों को सीधे व्यापारिक अवसरों का लाभ उठाने का अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया.


यह समझना महत्वपूर्ण है कि व्यापार का यह आकर्षण केवल वाणिज्यिक उद्यम तक सीमित नहीं था, बल्कि यह अन्वेषण और साम्राज्यवाद के लिए एक शक्तिशाली उत्प्रेरक साबित हुआ. यूरोप की भारतीय वस्तुओं की अदम्य मांग और मौजूदा व्यापार मार्गों की अक्षमता ने सीधे समुद्री मार्गों की खोज को प्रेरित किया, जिसका सबसे प्रमुख उदाहरण वास्को डी गामा की यात्रा है. एक बार जब ये सीधे मार्ग स्थापित हो गए, तो "व्यापार" का प्रारंभिक उद्देश्य तेजी से इन मूल्यवान वस्तुओं पर "एकाधिकार" स्थापित करने की इच्छा में बदल गया. संसाधनों और बाजारों पर इस विशेष नियंत्रण की खोज ने स्वाभाविक रूप से राजनीतिक और सैन्य शक्ति के अधिग्रहण को आवश्यक बना दिया, जिससे साम्राज्यवाद की नींव पड़ी. इस प्रकार, आर्थिक समृद्धि की खोज केवल एक वाणिज्यिक प्रयास नहीं थी; यह वह मौलिक शक्ति थी जिसने यूरोपीय राष्ट्रों को जोखिम भरे अन्वेषण करने और बाद में, मात्र व्यापारिक साझेदारों से प्रभावशाली औपनिवेशिक शक्तियों में बदलने के लिए मजबूर किया. यह दर्शाता है कि आर्थिक आवश्यकता ब्रिटिश साम्राज्य के भारत में उदय के साथ गहराई से जुड़ी हुई भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से अविभाज्य थी.


II. यूरोपीय शक्तियों का भारत में आगमन: एक व्यापारिक दौड़ (Arrival of European Powers in India: A Trade Race)


भारत की समृद्धि ने एक व्यापारिक दौड़ को जन्म दिया, जिसमें पुर्तगाली, डच, और फ्रांसीसी जैसी विभिन्न यूरोपीय शक्तियाँ शामिल थीं. प्रत्येक शक्ति का अपना उद्देश्य, रणनीति और अंततः अपना भाग्य था, जिसने भारत के भविष्य को आकार दिया.


पुर्तगालियों का आगमन: मसालों का एकाधिकार (Arrival of the Portuguese: Monopoly of Spices)


यूरोपीय शक्तियों में सबसे पहले पुर्तगालियों ने भारत में प्रवेश किया. 17 मई 1498 या 20 मई 1498 को पुर्तगाली खोजकर्ता वास्को डी गामा केप ऑफ गुड होप के रास्ते भारत के पश्चिमी तट पर स्थित कालीकट बंदरगाह पहुंचा. यह यूरोप से भारत के लिए एक नए समुद्री मार्ग की ऐतिहासिक खोज थी, जिसने व्यापार के नए द्वार खोल दिए. उसे गुजराती व्यापारी अब्दुल मजीद ने सहायता की, और कालीकट के तत्कालीन शासक जमोरिन ने उसका स्वागत किया.


पुर्तगालियों ने 1498 . में 'एस्तादो इंडिया' नामक अपनी कंपनी की स्थापना की. उन्होंने भारत में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए 1503 . में कोचीन में अपना पहला किला और 1505 . में कन्नूर में दूसरा किला स्थापित किया. फ्रांसिस्को दी अल्मीडा, जो 1505 में भारत आए, प्रथम पुर्तगाली गवर्नर थे, जिन्होंने 'नीले जल की नीति' (Blue Water Policy) अपनाई, जिसका उद्देश्य हिंद महासागर में पुर्तगाली नौसैनिक वर्चस्व स्थापित करना था. अल्फान्सो दी अल्बुकर्क, जो 1509 में गवर्नर बने, को भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है. उसने 1510 में बीजापुर के यूसुफ आदिलशाह से गोवा छीन लिया और इसे अपना महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बनाया. अल्बुकर्क ने 1511 में मलक्का और 1515 में फारस की खाड़ी में स्थित होर्मुज पर भी अधिकार कर लिया, जिससे हिंद महासागर के प्रमुख व्यापारिक मार्गों पर पुर्तगाली नियंत्रण स्थापित हो गया.


पुर्तगालियों ने भारत में कई नई चीजें पेश कीं, जिनमें तम्बाकू, लाल मिर्च की खेती, जहाज निर्माण और प्रिंटिंग प्रेस (1556 में गोवा में पहला स्थापित किया गया) शामिल हैं. गोथिक स्थापत्य कला भी उनकी ही देन है. हालांकि, पुर्तगाली जल्द ही व्यापारियों से अधिक साम्राज्यवादी नज़र आने लगे, जिससे स्थानीय शासकों से उनकी शत्रुता बढ़ गई. स्पेन के साथ युद्ध और ईसाई धर्म के अंधाधुंध प्रचार ने भी उनके पतन में योगदान दिया. मुगल शासक शाहजहाँ ने 1632 में हुगली को पुर्तगालियों के अधिकार से छीन लिया, और औरंगजेब ने 1686 में चटगाँव से समुद्री लुटेरों का सफाया किया, जिससे उनकी शक्ति और कम हो गई.


डचों का आगमन: वस्त्रों पर ध्यान (Arrival of the Dutch: Focus on Textiles)


पुर्तगालियों की समृद्धि देखकर डच भी भारत और श्रीलंका की ओर आकर्षित हुए. 1596 . में कॉर्नेलिस डी होउटमैन भारत आने वाले पहले डच नागरिक थे. 1602 में 'वेरिंगदे ओस्टइन्दिशे कंपनी' (Vereenigde Oast-In-dische Compagnie) या डच ईस्ट इंडिया कंपनी (VOC) की स्थापना की गई. यह दुनिया की पहली सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली संयुक्त स्टॉक कंपनी थी, जिसमें नीदरलैंड का कोई भी नागरिक शेयर खरीद सकता था, और इसे एशिया में व्यापारिक गतिविधियों के संचालन के लिए डचों का एकाधिकार प्रदान किया गया था. कंपनी को युद्ध संचालित करने, शांति वार्ता करने, क्षेत्र पर कब्ज़ा करने और किले बनाने का अधिकार भी दिया गया था.

  

पुर्तगालियों के विपरीत, डचों ने भारत में मसालों के बजाय कपड़ों के व्यापार को प्राथमिकता दी, और भारत को वस्त्र निर्यात का केंद्र बनाने का श्रेय उन्हें ही जाता है. उनकी पहली फैक्ट्री 1605 में आंध्र प्रदेश के मसुलीपट्टनम में स्थापित हुई. अन्य प्रमुख केंद्र पुलिकट (1608, जिसे भारत में डच उपनिवेशों की प्रारंभिक राजधानी बनाया गया), सूरत (1616), बंगाल (1627), बिमलीपटम, कराईकल, चिनसुराह, कासिम बाजार, बालासोर, पटना, नागपट्टनम (जिसे उन्होंने पुर्तगालियों से छीनकर दक्षिण भारत में अपना प्रमुख गढ़ बनाया) और कोचीन थे. वे नील, रेशम, चावल और अफीम का भी व्यापार करते थे, और काली मिर्च और मसालों के बाजार पर एकाधिकार जमा लिया था.

  

डचों का पतन 1759 में 'बेदरा के युद्ध' में अंग्रेजों (रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में) से हार के बाद हुआ. उनकी नौसैनिक शक्ति का कमजोर होना, कर्मचारियों का आंतरिक भ्रष्टाचार, त्रावणकोर साम्राज्य से कोलाचेल की लड़ाई में हार (1741) और चौथा आंग्ल-डच युद्ध (1780-84) भी उनके पतन के प्रमुख कारण थे. 1825 में एंग्लो-डच संधि के तहत भारत में सभी डच संपत्ति अंततः अंग्रेजों को हस्तांतरित कर दी गई.

  

फ्रांसीसियों का आगमन: व्यापार और प्रतिद्वंद्विता (Arrival of the French: Trade and Rivalry)


फ्रांसीसी भारत में अन्य यूरोपीय कंपनियों की तुलना में सबसे अंत में प्रवेश करने वाले थे. 1664 . में फ्रांस के सम्राट लुई चौदहवें के मंत्री कोल्बर्ट द्वारा 'फ्रांसीसी कंपनी' (The compaginie des indes orientales) की स्थापना की गई. यह एक सरकारी कंपनी थी और इसे फ्रांस सरकार से आर्थिक मदद प्राप्त थी

 

उन्होंने 1668 में सूरत में अपनी प्रथम कोठी स्थापित की, जिसके बाद 1669 में मछलीपट्टनम और 1674 में फ्रेंकोइस मार्टिन द्वारा स्थापित पांडिचेरी में भी व्यापारिक केंद्र खोले. चंद्रनगर (1690), माही, कराइकल और यानम भी उनके प्रमुख केंद्र थे. फ्रांसीसी कंपनी की मुख्य दिलचस्पी बिहार में शोरा (saltpetre) प्राप्त करना था, जो बारूद बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण घटक था

 

1742 के बाद, फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने भारत में साम्राज्य विस्तार की योजना बनाई. उसने स्थानीय भारतीय शासकों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू किया और सहायक संधि प्रथा को पहली बार स्थापित किया, जिसका उद्देश्य भारतीय राजाओं को फ्रांसीसी संरक्षण में लाना था. अंग्रेजों के साथ उनकी कड़ी प्रतिस्पर्धा रही, जिसके परिणामस्वरूप 18वीं शताब्दी में कर्नाटक युद्ध हुए (1749-1754). 1760 में वांडीवाश के युद्ध में फ्रांसीसियों की निर्णायक हार हुई, जिससे भारत में उनकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं समाप्त हो गईं. 1761 में पांडिचेरी भी उनके हाथ से निकल गया. 1763 की डैरिफ की संधि के तहत उन्हें अपने खोए हुए क्षेत्र वापस मिले, लेकिन 1793 में लॉर्ड कार्नवालिस के समय भारत में फ्रांसीसियों की व्यापारिक गतिविधि सिमटकर पांडिचेरी तक रह गई. धीरे-धीरे 1814 . तक बिहार और भारत से फ्रांसीसी गतिविधियां लुप्तप्राय हो गईं.  


यह ध्यान देने योग्य है कि यूरोपीय शक्तियों का भारत में आगमन केवल व्यापार तक सीमित नहीं रहा. व्यापारिक दौड़ ने स्वाभाविक रूप से क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को जन्म दिया. पुर्तगाली, जो शुरू में मसालों के व्यापार पर केंद्रित थे, तेजी से साम्राज्यवादी बन गए, जैसा कि गोवा पर उनके कब्जे से स्पष्ट होता है. इसी तरह, डच ईस्ट इंडिया कंपनी को केवल व्यापार करने, बल्कि युद्ध छेड़ने, शांति वार्ता करने, क्षेत्र पर कब्जा करने और किले बनाने का अधिकार भी दिया गया था. फ्रांसीसी, डूप्ले के नेतृत्व में, भारत में साम्राज्य विस्तार की एक स्पष्ट योजना के साथ आए. यह लगातार पैटर्न दर्शाता है कि भारतीय व्यापार की आकर्षक प्रकृति ने स्वाभाविक रूप से संसाधनों और बाजारों पर विशेष नियंत्रण और एकाधिकार की इच्छा पैदा की. इस मुनाफे को सुरक्षित करने और अधिकतम करने के लिए, क्षेत्रीय नियंत्रण एक आवश्यक और तार्किक अगला कदम बन गया, जिससे भविष्य के संघर्षों और पूर्ण उपनिवेशीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ. व्यापार की यह दौड़ अंततः राजनीतिक और सैन्य शक्ति के लिए एक प्रतिस्पर्धा में बदल गई

 

यूरोपीय शक्तियों की सफलता केवल उनकी सैन्य या आर्थिक शक्ति का परिणाम नहीं थी, बल्कि यह भारतीय राजनीतिक संरचनाओं और प्रतिद्वंद्विताओं का चतुराई से लाभ उठाने की उनकी क्षमता का भी परिणाम थी. पुर्तगालियों का शुरू में जमोरिन द्वारा स्वागत किया गया था , और डचों ने विजयनगर शासकों से अनुमति प्राप्त करने के बाद कारखाने स्थापित किए. यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों के बीच संघर्ष में अक्सर "स्थानीय भारतीय शासकों के साथ लाभदायक व्यापारिक संबंध स्थापित करना" और, इससे भी महत्वपूर्ण बात, "स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप करना" शामिल था. यह दर्शाता है कि यूरोपीय सफलता केवल उनकी सैन्य या आर्थिक शक्ति का परिणाम नहीं थी, बल्कि भारतीय रियासतों की खंडित और अक्सर युद्धरत प्रकृति का फायदा उठाने की उनकी चतुर क्षमता का भी परिणाम थी. एक भारतीय शासक के साथ रणनीतिक रूप से गठबंधन करके या दूसरे के खिलाफ खेलकर, उन्होंने धीरे-धीरे प्रभाव और क्षेत्र प्राप्त किया. इस प्रकार, व्यापार की दौड़ एक राजनीतिक हेरफेर की दौड़ में बदल गई, जहाँ यूरोपीय शक्तियों ने भारत के भीतर मौजूदा विभाजनों का कुशलता से फायदा उठाया. आंतरिक कमजोरियों का यह रणनीतिक शोषण, शुरुआती चरणों में सीधे विजय के बजाय, उनके अंततः उदय का मार्ग प्रशस्त करने में महत्वपूर्ण साबित हुआ और ब्रिटिशों की "फूट डालो और राज करो" की रणनीति की भविष्यवाणी करता है.  


भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन: एक तुलनात्मक सारणी (Arrival of European Companies in India: A Comparative Table)

कंपनी का नाम (Company Name)

मूल देश (Country of Origin)

स्थापना वर्ष (Year of Establishment)

भारत में प्रथम आगमन (First Arrival in India)

प्राथमिक व्यापारिक फोकस (Primary Trade Focus)

प्रमुख प्रारंभिक केंद्र/गतिविधियाँ (Key Initial Centers/Activities)

पतन/निकास का प्रमुख कारण (Key Reason for Decline/Exit)

एस्तादो इंडिया (पुर्तगाली)

पुर्तगाल

1498 .

1498 . (वास्को डी गामा)

मसाले

कालीकट, कोचीन (पहला किला 1503), गोवा (1510)

साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा, धार्मिक प्रचार, स्थानीय संघर्ष, मुगल हस्तक्षेप

वेरिंगदे ओस्टइन्दिशे कंपनी (डच)

नीदरलैंड/हॉलैंड

1602 .

1596 . (कारनेलिस डी होउटमैन)

वस्त्र, नील, रेशम, अफीम

मसुलीपट्टनम (पहली फैक्ट्री 1605), पुलिकट, सूरत, चिनसुराह

बेदरा का युद्ध (1759) में अंग्रेजों से हार, आंतरिक भ्रष्टाचार, नौसैनिक कमजोरी

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी

इंग्लैंड

1600 .

1608 . (सूरत)

कपास, रेशम, नील, शोरा, चाय, अफीम

सूरत (पहला स्थायी कारखाना 1613), मद्रास (फोर्ट सेंट जॉर्ज 1639), कलकत्ता (फोर्ट विलियम 1698)

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कंपनी देस इण्डस ओरियंटोल्स (फ्रांसीसी)

फ्रांस

1664 .

1668 . (सूरत)

कपास, मसाले, शोरा

सूरत, मछलीपट्टनम, पांडिचेरी (1674), चंद्रनगर

वांडीवाश का युद्ध (1760) में अंग्रेजों से निर्णायक हार, सरकारी कंपनी होने की सीमाएँ

 

III. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का उदय: व्यापार से प्रभुत्व की ओर (Rise of British East India Company: From Trade to Dominance)


यूरोपीय व्यापारिक दौड़ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (EIC) का उदय एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने धीरे-धीरे व्यापारिक हितों से राजनीतिक और सैन्य प्रभुत्व की ओर कदम बढ़ाया.


कंपनी की स्थापना और प्रारंभिक उद्देश्य (Establishment of the Company and Initial Objectives)


ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 31 दिसंबर 1600 ईस्वी को इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम द्वारा एक शाही चार्टर के माध्यम से हुई थी. इसे औपचारिक रूप से 'The Governor and Company of Merchants of London trading into the East Indies' के नाम से जाना जाता था. यह 218 साझीदारों के एक समूह द्वारा गठित एक संयुक्त स्टॉक कंपनी थी, जिसमें जॉन वॉट्स और जॉर्ज व्हाइट जैसे प्रमुख व्यापारी शामिल थे. प्रारंभ में, कंपनी को पूर्वी देशों से व्यापार करने के लिए 15 वर्षों का एकाधिकार प्राप्त था, जिसे 1609 में एक नवीन चार्टर के द्वारा अनिश्चितकाल के लिए बढ़ा दिया गया

 

कंपनी का मुख्य उद्देश्य हिंद महासागर क्षेत्र में व्यापार करना था, विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ. इसका लक्ष्य सुदूर-पूर्वी व्यापार पर स्पेनिश और पुर्तगाली एकाधिकार को तोड़ना था. वे भारत से सस्ते दाम पर कपास, रेशम, नील, शोरा, चाय और अफीम जैसी मूल्यवान वस्तुएं खरीदकर यूरोप में ऊँची कीमतों पर बेचकर भारी मुनाफा कमाना चाहते थे.  


भारत में ब्रिटिशों का पहला कदम (British First Steps in India)


ब्रिटिशों का भारत में पहला कदम 1591 में जेम्स लैंकेस्टर के नेतृत्व में एक अंग्रेजी अभियान के साथ शुरू हुआ, जो केप ऑफ गुड होप के रास्ते अरब सागर की ओर रवाना हुआ और भारत तक पहुंचने वाला पहला अंग्रेजी अभियान बन गया. 1608 में कंपनी के जहाज गुजरात के सूरत बंदरगाह पर उतरे, जो भारत में अंग्रेजों का पहला प्रवेश बिंदु था. कैप्टन विलियम हॉकिन्स ने अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रतिनिधित्व किया और 1609 में मुगल सम्राट जहाँगीर से व्यापारिक अनुमति लेने के लिए आगरा गए

 

इसके बाद, इंग्लैंड के राजा जेम्स I के राजदूत के रूप में सर थॉमस रो 1615 में जहाँगीर से मिले. उन्होंने मुगल साम्राज्य के सभी भागों में व्यापारिक कोठियां स्थापित करने का अधिकार प्राप्त किया, जो कंपनी के लिए एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक जीत थी. सर थॉमस रो ने जहाँगीर की अभिरुचियों और धार्मिक मान्यताओं के बारे में विस्तार से लिखा है.

  

व्यापारिक चौकियों और किलों का निर्माण (Establishment of Trading Posts and Forts)


अंग्रेजों को 1613 में सूरत में अपना पहला स्थायी कारखाना स्थापित करने की अनुमति मिली. इससे पहले, 1611 में, उन्होंने बंगाल की खाड़ी के आंध्र तट पर मसुलीपट्टनम में एक व्यापारिक कोठी स्थापित की थी. कंपनी ने सूरत (1619), मद्रास (1639), और कलकत्ता (1690) में महत्वपूर्ण व्यापारिक चौकियां स्थापित कीं, जो बाद में उनके प्रशासनिक केंद्रों के रूप में विकसित हुईं.

  

सुरक्षा और व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए, अंग्रेजों ने किलों का निर्माण शुरू किया. मद्रास में 1639 में फोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण किया गया, जो भारत में पहला अंग्रेजी किला था. 1661 में, पुर्तगालियों ने बम्बई को इंग्लैंड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय को दहेज में दिया, जिसे 1668 में कंपनी को सौंप दिया गया, जिससे अंग्रेजों को पश्चिमी तट पर एक महत्वपूर्ण बंदरगाह मिला. कलकत्ता में, जॉब चारनाक ने 1690 में शहर की स्थापना की और कंपनी द्वारा कलकत्ता में 1698 में फोर्ट विलियम किले का भी निर्माण करवाया गया. यह किला 1773 में बनकर तैयार हुआ और बाद में भारतीय सेना का मुख्यालय बना.

  

बंगाल में व्यापारिक रियायतें भी अंग्रेजों के लिए महत्वपूर्ण साबित हुईं. अंग्रेजों ने बंगाल में अपनी प्रथम कोठी की स्थापना 1651 . में हुगली में शाहशुजा की अनुमति से की. इसी वर्ष शाहशुजा ने 3000 रुपए वार्षिक में अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में मुक्त व्यापार की अनुमति भी प्रदान कर दी. 1717 में मुगल सम्राट फर्रुखसियर ने एक शाही फरमान जारी किया, जिसे कंपनी के लिए 'मैग्नाकार्टा' कहा गया. इस फरमान ने अंग्रेजों को बंगाल में चुंगी रहित व्यापार की अनुमति दी, जिससे उन्हें भारी आर्थिक लाभ हुआ और भारतीय व्यापारियों पर उन्हें बढ़त मिली.

  

यह समझना महत्वपूर्ण है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रारंभिक दृष्टिकोण deceptively humble था. उन्होंने एक विशुद्ध रूप से वाणिज्यिक उद्यम के रूप में शुरुआत की, शक्तिशाली मुगल सम्राटों (हॉकिन्स, रो) से व्यापारिक चौकियों (कारखाने) स्थापित करने की अनुमति मांगी. हालांकि, यह प्रतीत होता है कि हानिरहित शुरुआत एक रणनीतिक दीर्घकालिक दृष्टि के साथ जुड़ी हुई थी. फोर्ट सेंट जॉर्ज और फोर्ट विलियम जैसे "किले" (किलेबंदी) की स्थापना, और फर्रुखसियर से "मैग्नाकार्टा" जैसे कानूनी रियायतों का अधिग्रहण , जो शुल्क-मुक्त व्यापार की अनुमति देता था, केवल वाणिज्य को सुविधाजनक बनाने के बारे में नहीं था. इन कार्यों ने व्यवस्थित रूप से एक भौतिक उपस्थिति का निर्माण किया, कानूनी लाभ हासिल किए, और रक्षात्मक बुनियादी ढांचा विकसित किया. इस क्रमिक लेकिन लगातार घुसपैठ ने उन्हें एक foothold हासिल करने, अपनी संपत्ति को सैन्य रूप से सुरक्षित करने, और एक कानूनी ढांचा स्थापित करने की अनुमति दी जिसका बाद में राजनीतिक विस्तार के लिए शोषण किया जाएगा. इस प्रकार, ब्रिटिशों ने तुरंत भारत पर विजय प्राप्त नहीं की. इसके बजाय, उन्होंने एक परिष्कृत "पतली कील" रणनीति का इस्तेमाल किया, जहाँ व्यापार ने ट्रोजन हॉर्स के रूप में कार्य किया. वाणिज्य के बहाने आर्थिक और सैन्य रूप से धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से खुद को मजबूत करके, उन्होंने अपने अंततः राजनीतिक और क्षेत्रीय प्रभुत्व के लिए आवश्यक आधार तैयार किया, जिससे वे मात्र व्यापारियों से एक दुर्जेय शक्ति में बदल गए

 

मुगल शासकों की दूरदर्शिता की कमी और इसके परिणाम भी स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं. जहाँगीर और फर्रुखसियर जैसे मुगल सम्राटों ने ब्रिटिशों को महत्वपूर्ण व्यापारिक रियायतें और कारखानों तथा यहां तक कि किलेबंद संरचनाओं के लिए भी अनुमति दी. यह मुगल शासकों की ओर से एक महत्वपूर्ण दूरदर्शिता की कमी को दर्शाता है. उन्होंने शायद ब्रिटिशों को कई विदेशी व्यापारियों में से एक के रूप में देखा होगा, जो शाही खजाने में सीमा शुल्क के माध्यम से योगदान करते थे. वे शायद किलेबंद वाणिज्यिक चौकियों के पीछे निहित साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं और अपनी सैन्य क्षमताओं वाली एक विदेशी इकाई को विशेष विशेषाधिकार देने के दीर्घकालिक प्रभावों को पहचानने में विफल रहे. यह आत्मसंतुष्टि, शायद उस समय विशाल मुगल साम्राज्य की कथित अजेयता में निहित थी, जिसने ब्रिटिशों को शुरुआती चरणों में महत्वपूर्ण प्रतिरोध के बिना अपनी शक्ति और प्रभाव को धीरे-धीरे मजबूत करने की अनुमति दी. इस प्रकार, मुगल साम्राज्य का बाद का पतन (जैसा कि अगले खंड में खोजा गया है) केवल आंतरिक कमजोरियों या बाहरी आक्रमणों के कारण नहीं था, बल्कि, कुछ हद तक, इसके पहले के, प्रतीत होता है कि शक्तिशाली शासकों द्वारा की गई रणनीतिक त्रुटियों का सीधा परिणाम था. यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के वास्तविक इरादों और क्षमताओं को कम आंकने से ब्रिटिशों को अपनी उपस्थिति स्थापित करने के लिए महत्वपूर्ण प्रारंभिक स्थान और वैधता मिली, जिसका उन्होंने बाद में अपने पूर्ण लाभ के लिए उपयोग किया

 

IV. मुगल साम्राज्य का पतन: ब्रिटिश विस्तार का मार्ग (Decline of Mughal Empire: Path for British Expansion)


ब्रिटिश साम्राज्य के भारत में विस्तार का मार्ग मुगल साम्राज्य के आंतरिक पतन और भारतीय उपमहाद्वीप में उत्पन्न हुए शक्ति शून्य से प्रशस्त हुआ.


औरंगजेब के बाद की स्थिति: कमजोर उत्तराधिकारी (Post-Aurangzeb Era: Weak Successors)


महान मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु (1707 .) मुगल साम्राज्य के पतन की शुरुआत का प्रतीक थी. उनके लगभग 50 साल के शासनकाल में साम्राज्य का सबसे बड़ा क्षेत्रीय विस्तार हुआ, लेकिन यह विरोधाभासी रूप से इसके पतन का प्रारंभिक बिंदु भी था. औरंगजेब के बाद के उत्तराधिकारी, जैसे बहादुर शाह, जहांदार शाह, मुहम्मद शाह और बहादुर शाह द्वितीय, कमजोर, अयोग्य और आलसी थे. उनमें देश को संभालने और विद्रोहों से निपटने की क्षमता नहीं थी. वे आंतरिक सत्ता संघर्षों और प्रशासनिक अक्षमताओं का शिकार हुए, जिससे साम्राज्य में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी. एक सक्षम सेना, प्रभावी नौकरशाही और मजबूत नेता की कमी के कारण मुगल साम्राज्य का पतन हुआ. औरंगजेब के उत्तराधिकारी सामंती कुलीन वर्ग की साजिशों और साज़िशों का शिकार हो गए, क्योंकि उनमें ताकत की कमी थी.  


आंतरिक संघर्ष और क्षेत्रीय शक्तियों का उदय (Internal Conflicts and Rise of Regional Powers)


औरंगजेब की कट्टरपंथी नीतियों, जैसे हिंदुओं पर जजिया कर का पुनरुत्थान, और दक्कन में लंबे युद्धों ने सिखों, मराठों, जाटों और राजपूतों जैसे समुदायों में असंतोष पैदा किया, जिससे बड़े पैमाने पर विद्रोह हुए. साम्राज्य के विशाल आकार और उत्तरी भारत से सम्राट की लंबी अनुपस्थिति के कारण, कई प्रांतीय गवर्नर, जैसे बंगाल, अवध और हैदराबाद के नवाब, स्वतंत्र हो गए और अपनी सत्ता स्थापित करने लगे, जिससे मुगल साम्राज्य का विभाजन हुआ

 

18वीं शताब्दी में इन क्षेत्रीय शक्तियों (मराठा, सिख, जाट, राजपूत) के बीच आपसी संघर्षों ने देश को और खंडित कर दिया. जोधपुर के राजा अजीत सिंह गुजरात पर शासन करते थे, और अंबर के सवाई राजा जय सिंह मालवा के राज्यपाल थे, जो अपने वतन के पास के शाही इलाकों के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करके अपने क्षेत्रों को बढ़ाने की कोशिश करते थे. इन आंतरिक प्रतिद्वंद्विताओं ने एक एकीकृत प्रतिरोध की संभावना को कम कर दिया.

  

आर्थिक दुर्दशा और बाहरी आक्रमण (Economic Distress and External Invasions)


मुगल साम्राज्य की आर्थिक स्थिति भी उसके पतन का एक प्रमुख कारण थी. शाहजहाँ के भव्य निर्माण कार्यों और औरंगजेब के लंबे दक्कन युद्धों ने शाही खजाने को गंभीर रूप से नष्ट कर दिया. बाद की राजनीतिक अशांति और जागीरदारी संकट ने कर एकत्र करना कठिन बना दिया, जिससे साम्राज्य की वित्तीय स्थिति और खराब हो गई.  


विदेशी आक्रमणों ने मुगलों की शेष शक्ति को कम कर दिया और मुगल साम्राज्य के पतन को तेज कर दिया. 1739 में नादिर शाह और 18वीं सदी के मध्य में अहमद शाह अब्दाली के अभियानों ने बहुत सारी संपत्ति नष्ट की और साम्राज्य की स्थिरता को हिला दिया.  


भारतीय शासकों की सैन्य और राजनीतिक कमजोरियां (Military and Political Weaknesses of Indian Rulers)


18वीं शताब्दी में भारतीय शासकों की सैन्य और राजनीतिक कमजोरियां अंग्रेजों के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर साबित हुईं. भारतीय शक्तियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले हथियार, जैसे बंदूकें और तोपें, यूरोपीय हथियारों की तुलना में बेहद धीमे और कम प्रभावी थे, जिससे उन्हें युद्ध के मैदान में नुकसान होता था. अधिकतर भारतीय शासकों के पास सेना के वेतन के नियमित भुगतान के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं था. वे निजी परिवारजनों या किराए के सैनिकों की भीड़ पर निर्भर थे, जिनमें अनुशासन की कमी थी और जो कभी भी विद्रोही बनकर विरोधी खेमे में जा सकते थे. इसके विपरीत, अंग्रेजों के पास अनुशासित और नियमित वेतन वाली सेना थी, जो उनकी सैन्य प्रभावशीलता का एक प्रमुख कारण था.  


कंपनी के अधिकारियों और सैनिकों को उनके कौशल और विश्वसनीयता के आधार पर कार्य सौंपे जाते थे, कि वंशागत या जाति के आधार पर, जैसा कि भारतीय शासकों में अक्सर होता था. इससे अंग्रेजों की सेना अधिक प्रभावी और संगठित थी. भारतीय शासकों के बीच आंतरिक गृहयुद्ध और प्रतिद्वंद्विता ने उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने से रोका. परिणामस्वरूप पानीपत के तृतीय युद्ध (1761) में मराठों को राजपूतों तथा अन्य भारतीय शक्तियों का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ, जिससे मराठों को इस युद्ध में पराजित होना पड़ा

 

मुगल साम्राज्य के पतन ने एक शक्ति शून्य या अत्यधिक खंडित और कमजोर राजनीतिक परिदृश्य का निर्माण किया. ब्रिटिश, जो रणनीतिक रूप से अपनी उपस्थिति स्थापित कर रहे थे, इस फूट का फायदा उठाने के लिए पूरी तरह से तैयार थे. उन्हें एक दुर्जेय, एकीकृत भारतीय साम्राज्य का सामना नहीं करना पड़ा, बल्कि युद्धरत राज्यों का एक संग्रह मिला, जिनमें से प्रत्येक हेरफेर और विजय के प्रति संवेदनशील था. इस प्रकार, मुगलों का पतन केवल एक निष्क्रिय ऐतिहासिक घटना नहीं थी, बल्कि एक सक्रिय उत्प्रेरक था जिसने ब्रिटिश विस्तार को सक्षम और तेज किया. ब्रिटिशों ने केवल "आगमन" करके विजय प्राप्त नहीं की; उन्होंने राजनीतिक विखंडन और सैन्य कमजोरी की एक पूर्व-मौजूदा स्थिति में कुशलता से "कदम रखा" और उसका लाभ उठाया, जिसका उन्होंने अपने लाभ के लिए विशेषज्ञता से उपयोग किया.


मुगल साम्राज्य की गंभीर आर्थिक दुर्दशा, जो शाहजहाँ के भव्य निर्माण परियोजनाओं, औरंगजेब के लंबे दक्कन युद्धों और कर एकत्र करने में बाद की कठिनाई से उत्पन्न हुई थी , सीधे तौर पर एक मजबूत, आधुनिक सेना को बनाए रखने में उसकी अक्षमता से जुड़ी थी. एक खाली खजाने का मतलब सैनिकों के लिए अनियमित वेतन और बेहतर हथियारों और सैन्य अनुशासन में निवेश की गंभीर कमी थी. इस बढ़ती सैन्य कमजोरी ने, बदले में, साम्राज्य को नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली के विनाशकारी बाहरी आक्रमणों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बना दिया , जिससे उसकी वित्तीय परेशानियाँ और राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ गई. इसने एक आत्म-पुष्टि चक्र बनाया जहाँ आर्थिक गिरावट ने सैन्य क्षय को बढ़ावा दिया, जिससे फिर अधिक राजनीतिक अराजकता और गहरी आर्थिक समस्याएँ पैदा हुईं. इसके विपरीत, ब्रिटिश, व्यापारिक मुनाफे से प्राप्त अपने मजबूत वित्तीय समर्थन और अनुशासित, नियमित रूप से भुगतान की जाने वाली सेनाओं के साथ, ऐसी ढहती हुई प्रणाली को प्रभावी ढंग से मात देने और उसे ध्वस्त करने में सक्षम थे. इस प्रकार, ब्रिटिश सफलता केवल उनकी सैन्य क्षमता का परिणाम नहीं थी, बल्कि उनके बेहतर आर्थिक मॉडल का भी प्रमाण थी, जो निरंतर सैन्य विस्तार को बनाए रख सकता था और वित्तपोषित कर सकता था. यह भारतीय राज्यों की ढहती हुई वित्तीय और सैन्य संरचनाओं के बिल्कुल विपरीत था, जो इस बात पर प्रकाश डालता है कि औपनिवेशिक संदर्भ में आर्थिक शक्ति सैन्य और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए एक मौलिक शर्त थी.

  

V. निर्णायक युद्ध और ब्रिटिश सत्ता की स्थापना (Decisive Battles and Establishment of British Power)


मुगल साम्राज्य के पतन और भारतीय शासकों की आंतरिक कमजोरियों के बीच, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सैन्य और राजनीतिक शक्ति को मजबूत करने के लिए कई निर्णायक युद्ध लड़े, जिसने अंततः भारत में उनके प्रभुत्व की नींव रखी.


कर्नाटक युद्ध: आंग्ल-फ्रांसीसी वर्चस्व की लड़ाई (Carnatic Wars: Anglo-French Struggle for Supremacy)


18वीं शताब्दी के मध्य में, ब्रिटिश और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनियों के बीच दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए संघर्ष शुरू हुआ. यह यूरोपीय शक्तियों के बीच भारत में व्यापारिक और राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की बड़ी भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का हिस्सा था.  

द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-1754) फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले की बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और हैदराबाद कर्नाटक में उत्तराधिकार विवादों के कारण शुरू हुआ. डूप्ले ने स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप करके फ्रांसीसी शक्ति बढ़ाने की कोशिश की, जबकि अंग्रेजों ने प्रतिद्वंद्वी दावेदारों का समर्थन किया. अगस्त 1749 में हुए अम्बुर के युद्ध में फ्रांसीसी और उनके समर्थित दावेदारों (मुजफ्फर जंग, चंदा साहिब) की संयुक्त सेनाओं ने अनवरुद्दीन को पराजित कर मार डाला.

  

इस युद्ध में रॉबर्ट क्लाइव की भूमिका महत्वपूर्ण थी. उसने 1751 में कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर अचानक हमला कर कब्जा कर लिया, जिससे फ्रांसीसियों की स्थिति कमजोर हुई और चंदा साहिब की मृत्यु हुई. युद्ध का अंत 1754 में पांडिचेरी की संधि से हुआ, जिसमें यूरोपीय शक्तियों ने भारतीय शासकों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया. हालांकि, अंग्रेजों ने अपने उम्मीदवार मोहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब बनाकर प्रभुत्व हासिल कर लिया. इन युद्धों ने भारत में फ्रांसीसी शक्ति को कमजोर किया और अंग्रेजों के लिए मार्ग प्रशस्त किया. अंततः, 1760 में वांडीवाश के युद्ध में फ्रांसीसियों की निर्णायक हार हुई, जिससे भारत में उनकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं समाप्त हो गईं

 

प्लासी का युद्ध (1757): बंगाल में नींव (Battle of Plassey (1757): Foundation in Bengal)


प्लासी का युद्ध भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखने वाला एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम था. अंग्रेजों ने बंगाल में अपने हितों की पूर्ति के लिए कठपुतली नवाबों को सत्ता में बिठाना शुरू कर दिया था. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच व्यापारिक अधिकारों के दुरुपयोग (दस्तक का दुरुपयोग), अवैध किलेबंदी और राजनीतिक हस्तक्षेप को लेकर तनाव बढ़ गया

 

23 जून 1757 को प्लासी (बंगाल) में रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने नवाब सिराजुद्दौला को हराया. यह जीत मीर जाफर और अन्य प्रमुख भारतीय सरदारों के विश्वासघात के कारण संभव हुई, कि सैन्य शक्ति के बल पर. इस युद्ध के परिणामस्वरूप, मीर जाफर को बंगाल का कठपुतली नवाब बनाया गया, जिसने कंपनी और क्लाइव को बेशुमार धन दिया और कई व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान कीं. प्लासी के युद्ध ने बंगाल की राजनीति पर अंग्रेजों का नियंत्रण कायम कर दिया और उन्हें एक व्यापारी कंपनी से राजशक्ति के स्रोत में बदल दिया. इसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव माना जाता है. इस युद्ध के परिणामस्वरूप बंगाल की अर्थव्यवस्था का बड़े पैमाने पर शोषण शुरू हुआ.  


बक्सर का युद्ध (1764): वास्तविक सत्ता का अधिग्रहण (Battle of Buxar (1764): Acquisition of Real Power)


प्लासी के युद्ध के बाद, बंगाल में अंग्रेजों का प्रभाव बढ़ गया, लेकिन वास्तविक सत्ता का अधिग्रहण बक्सर के युद्ध से हुआ. मीर कासिम, जो बंगाल का नवाब था, एक मजबूत और कुशल शासक था जिसने अपनी स्थिति मजबूत करने और अंग्रेजों के हस्तक्षेप को रोकने का प्रयास किया. उसने राजधानी को मुर्शिदाबाद से बिहार के मुंगेर में स्थानांतरित किया और अपनी सेना को प्रशिक्षित किया. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों द्वारा 1717 के फरमान और दस्तक के दुरुपयोग से नाराज होकर, मीर कासिम ने सभी व्यापारिक शुल्कों को समाप्त कर दिया, जिससे अंग्रेजों को भारी राजस्व हानि हुई. अंग्रेजों ने उसे हटा दिया, जिसके बाद मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ मिलकर एक संयुक्त सेना बनाई.  


22 अक्टूबर 1764 को बिहार के बक्सर मैदान में मेजर हेक्टर मुनरो के नेतृत्व वाली ब्रिटिश सेना ने इस तीनों की संयुक्त सेना को निर्णायक रूप से पराजित किया. प्लासी के युद्ध के विपरीत, बक्सर का युद्ध एक विधिवत सैन्य शक्ति परीक्षण था, जिसमें दोनों सेनाओं ने अपना सैन्य कौशल दिखाया.  


बक्सर युद्ध जीतने के बाद, रॉबर्ट क्लाइव को फिर से बंगाल का गवर्नर बनाकर भेजा गया, जिसने मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ दो महत्वपूर्ण संधियां कीं, जिन्हें इलाहाबाद की संधि (1765) के नाम से जाना जाता है.

  

  • इलाहाबाद की पहली संधि (12 अगस्त, 1765): इस संधि के माध्यम से अंग्रेजों को मुगल बादशाह से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूल करने का कानूनी अधिकार) प्राप्त हुई. इसके बदले में कंपनी ने बादशाह को प्रतिवर्ष 26 लाख रुपये देना स्वीकार किया. कंपनी ने अवध के नवाब से इलाहाबाद कड़ा का क्षेत्र छीन कर मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को सौंप दिया.  

  • इलाहाबाद की दूसरी संधि (16 अगस्त, 1765): इस संधि के तहत अवध के नवाब शुजाउद्दौला को युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में कंपनी को 50 लाख रुपये देने पड़े और अंग्रेजों को अवध के क्षेत्र में मुक्त व्यापार करने की अनुमति मिली. अवध को एक बफर राज्य के रूप में छोड़ दिया गया ताकि ब्रिटिश बंगाल को मराठा आक्रमणों से बचाया जा सके.  


बक्सर के युद्ध ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया. मुगल साम्राज्य प्रभावी रूप से एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में समाप्त हो गया, और अंग्रेज उत्तरी भारत के निर्विवाद शासक बन गए. इस युद्ध ने भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की नींव रखी और भारतीय संसाधनों की 'शाश्वत लूट' का दौर शुरू किया, जिससे भारत गरीबी की ओर बढ़ता चला गया और ब्रिटेन की समृद्धि साकार हुई.

  

आंग्ल-मैसूर और आंग्ल-मराठा युद्ध: दक्षिण और पश्चिम में विस्तार (Anglo-Mysore and Anglo-Maratha Wars: Expansion in South and West)


बंगाल में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद, अंग्रेजों ने भारत के अन्य क्षेत्रों में भी अपना विस्तार शुरू किया. दक्षिण में, उन्हें मैसूर के शक्तिशाली शासकों, हैदर अली और टीपू सुल्तान से कड़ा प्रतिरोध मिला. बंगाल की विजय से उत्साहित अंग्रेजों ने 1767 . में मैसूर पर आक्रमण कर दिया. प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-1769) हैदर अली की बढ़ती शक्ति और ब्रिटिश विस्तारवादी नीति के कारण हुआ. यह युद्ध 4 अप्रैल, 1769 को मद्रास की संधि के साथ समाप्त हुआ, जिसमें अंग्रेजों को रणनीतिक जीत मिली. बाद के युद्धों में, विशेषकर चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799) में टीपू सुल्तान की हार और मृत्यु के साथ, अंग्रेजों ने मैसूर पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया

 

पश्चिम में, अंग्रेजों को मराठा संघ से चुनौती मिली, जो 18वीं शताब्दी में एक दुर्जेय शक्ति के रूप में उभरा था. प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782) पेशवा माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार विवाद के कारण शुरू हुआ, जिसमें अंग्रेजों ने रघुनाथराव (राघोबा) का समर्थन किया. यह युद्ध सालबाई की संधि (1782) के साथ समाप्त हुआ, जिसने यथास्थिति बहाल की और मराठा संप्रभुता को बनाए रखा, लेकिन अंग्रेजों को कुछ रियायतें दीं. बाद के आंग्ल-मराठा युद्धों (1803-1805 और 1817-1818) में मराठों को निर्णायक रूप से पराजित किया गया, जिससे उनका साम्राज्य नष्ट हो गया और ब्रिटिश नियंत्रण मध्य और पश्चिमी भारत के विशाल क्षेत्रों पर स्थापित हो गया. इन युद्धों ने भारत में ब्रिटिश वर्चस्व को मजबूत किया और स्वदेशी प्रतिरोध के अंत को चिह्नित किया, जिससे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में प्रमुख शक्ति के रूप में उभरी

 

VI. निष्कर्ष: स्वतंत्रता संग्राम की नींव (Conclusion: Foundation of the Freedom Struggle)


ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में आगमन एक बहुआयामी प्रक्रिया थी जो केवल व्यापारिक संबंधों से शुरू हुई थी, लेकिन अंततः एक विशाल उपनिवेशवादी शासन में बदल गई. यूरोपीय शक्तियों के बीच व्यापारिक प्रतिस्पर्धा ने भारत को एक अंतरराष्ट्रीय अखाड़ा बना दिया, जहाँ पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी और ब्रिटिश सभी ने अपनी किस्मत आजमाई. इस दौड़ में, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी संगठनात्मक क्षमता, सैन्य अनुशासन और रणनीतिक दूरदर्शिता के बल पर अन्य यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ दिया.


मुगल साम्राज्य का पतन, औरंगजेब के बाद के कमजोर उत्तराधिकारियों, आंतरिक संघर्षों, क्षेत्रीय शक्तियों के उदय और आर्थिक दुर्दशा के कारण, अंग्रेजों के लिए एक आदर्श अवसर साबित हुआ. भारतीय शासकों की सैन्य और राजनीतिक कमजोरियों, विशेषकर उनकी एकता की कमी और तकनीकी पिछड़ेपन ने, अंग्रेजों को अपने प्रभुत्व का विस्तार करने में मदद की. कर्नाटक युद्धों में फ्रांसीसियों पर विजय, प्लासी के युद्ध में बंगाल पर नियंत्रण और बक्सर के युद्ध में दीवानी अधिकार प्राप्त करने से अंग्रेजों को भारत में एक मजबूत राजनीतिक और आर्थिक आधार मिला. इसके बाद, आंग्ल-मैसूर और आंग्ल-मराठा युद्धों ने दक्षिण और पश्चिम भारत में भी ब्रिटिश वर्चस्व स्थापित कर दिया.


यह क्रमिक अधिग्रहण, व्यापारिक चौकियों से लेकर विशाल क्षेत्रों पर पूर्ण राजनीतिक नियंत्रण तक, भारतीय संसाधनों के व्यवस्थित शोषण और भारतीय समाज के गहरे परिवर्तन का दौर था. ब्रिटिश शासन की स्थापना ने भारत में एक नए युग की शुरुआत की, जो शोषण, अन्याय और सांस्कृतिक अधीनता से चिह्नित था. इसी शोषण और दमन ने भारतीयों में आक्रोश की भावना को जन्म दिया, जिसने अंततः 1857 के विद्रोह और उसके बाद के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी. इस प्रकार, ब्रिटिश साम्राज्य का भारत में आगमन केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं थी, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की लंबी और कठिन यात्रा का प्रारंभिक बिंदु था.

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