भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और आज़ादी का संघर्ष: एक विस्तृत ऐतिहासिक यात्रा (The Indian National Congress and the Struggle for Independence: A Detailed Historical Journey)

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1. परिचय (Introduction)


1.1. ब्रिटिश राज के तहत भारत में राष्ट्रवाद का उदय (Rise of Nationalism in British India under the Raj)

1857 का सिपाही विद्रोह, जिसे अक्सर 'महान विद्रोह' या 'भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध' कहा जाता है, ने भारत में ब्रिटिश शासन के स्वरूप को मौलिक रूप से बदल दिया। इस विद्रोह के बाद, 1858 में ब्रिटिश क्राउन का सीधा शासन, जिसे 'राज' के नाम से जाना जाता है, स्थापित हुआ, जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी के लगभग एक सदी के नियंत्रण को समाप्त कर दिया यह संघर्ष, जिसमें लगभग £36 मिलियन का खर्च आया, ने ब्रिटिश शासन के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को गहराई से प्रभावित किया। इस अवधि में, भारतीयों और अंग्रेजों के बीच एक गहरी नस्लीय खाई पैदा हो गई, जिससे सामाजिक अलगाव में वृद्धि हुई, जैसा कि .एम. फोर्स्टर के ' पैसेज टू इंडिया' में भी चित्रित किया गया है

 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ब्रिटिश राज ने पूरे उपमहाद्वीप को सीधे अपने नियंत्रण में नहीं लिया। उपमहाद्वीप का लगभग दो-पांचवां हिस्सा स्वतंत्र रियासतों द्वारा शासित होता रहा, जिनकी संख्या 560 से अधिक थी। इनमें से कुछ शासकों ने 'महान विद्रोह' के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, लेकिन बाद में राज ने उनके साथ आपसी सहयोग की संधियाँ कीं ये रियासतें, विशेषकर उनके रूढ़िवादी अभिजात वर्ग और बड़े भूस्वामी, ब्रिटिश राज के लिए महत्वपूर्ण सहयोगी साबित हुए, जिन्होंने दो विश्व युद्धों के दौरान महत्वपूर्ण वित्तीय और सैन्य सहायता प्रदान की। उदाहरण के लिए, हैदराबाद का निजाम, जिसका राज्य इंग्लैंड और वेल्स के संयुक्त आकार का था, दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति था और उसने ब्रिटिशों को महत्वपूर्ण समर्थन दिया ये रियासतें 19वीं शताब्दी के अंत से लेकर 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलनों के खिलाफ राजनीतिक गढ़ के रूप में भी कार्य करती रहीं।

  

1857 के विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार ने कंपनी की संपत्तियों पर कब्जा कर लिया और प्रत्यक्ष शासन लागू किया, जिससे भारतीय प्रशासन के वित्त का आधुनिकीकरण हुआ और भारतीय सेना का व्यापक पुनर्गठन हुआ एक महत्वपूर्ण परिणाम भारतीयों के साथ परामर्श की नीति की शुरुआत थी। 1853 की विधान परिषद में केवल यूरोपीय सदस्य थे और यह भारतीय राय के साथ संचार की कमी के कारण संकट को बढ़ावा देने वाली मानी गई थी। हालांकि, ब्रिटिश-थोपे गए कुछ असंवेदनशील सामाजिक उपाय, जिन्होंने हिंदू समाज को प्रभावित किया था, अचानक बंद हो गए यह अवधि एक महत्वपूर्ण मोड़ थी जहाँ पारंपरिक भारतीय समाज की पश्चिमी प्रभावों को बाहर करने या अतीत को पुनर्जीवित करने की उम्मीदें कम हो गईं। इसके बजाय, पारंपरिक सामाजिक संरचना टूटने लगी और धीरे-धीरे एक पश्चिमीकृत वर्ग प्रणाली ने उसका स्थान ले लिया, जिससे भारतीय राष्ट्रवाद की बढ़ी हुई भावना के साथ एक मजबूत मध्यम वर्ग का उदय हुआ  

 

इस अवधि में एक महत्वपूर्ण विकास यह था कि भारतीय राष्ट्रवाद 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन और पश्चिमी सभ्यता के अनुकरण और प्रतिक्रिया दोनों के रूप में उभरा। पश्चिमी विचारों और शिक्षा से प्रभावित होकर, शहरी भारतीयों ने अपनी सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना शुरू कर दिया, जिससे विभिन्न राजनीतिक संघों का गठन हुआ अंग्रेजी-शिक्षित युवा भारतीय, जो पश्चिमी विचारकों से प्रभावित थे, भारतीय सिविल सेवा (ICS), कानूनी सेवाओं, पत्रकारिता और शिक्षा में रोजगार चाहते थे, यह मानते हुए कि वे अंततः सरकारी मशीनरी को विरासत में प्राप्त करेंगे। हालांकि, कुछ ही ICS में भर्ती हो पाए, और जिन्हें भर्ती किया गया, जैसे सुरेंद्रनाथ बनर्जी, उन्हें अक्सर बर्खास्त कर दिया गया, जिससे वे सक्रिय राष्ट्रवादी आंदोलनकारी बन गए

  

यह अवधि एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक गतिशीलता को उजागर करती है: 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश राज की स्थापना ने केवल प्रशासनिक परिवर्तन लाए, बल्कि इसने भारतीय समाज में एक गहरा सामाजिक-आर्थिक और नस्लीय विभाजन भी पैदा किया। ब्रिटिश राज, सत्ता को मजबूत करने के अपने लक्ष्य के बावजूद, एक शिक्षित वर्ग का निर्माण करके अपने स्वयं के पतन की नींव रखी, जो राष्ट्रीय शिकायतों को व्यक्त कर सकता था। विद्रोह के बाद के प्रशासनिक परिवर्तनों ने, जो दिखने में सुलह कराने वाले थे, भारतीयों की शक्तिहीनता को उजागर किया। नस्लीय विभाजन ने इस अलगाव को और मजबूत किया। यह विभाजन, साथ ही पश्चिमी शिक्षा के प्रसार ने, भारतीयों के बीच अपने अधिकारों और आत्म-शासन की आवश्यकता के बारे में जागरूकता को बढ़ावा दिया, जो राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक बना। राष्ट्रवाद की यह दोहरी प्रकृति, जिसमें पश्चिमी विचारों का अनुकरण और औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ प्रतिक्रिया दोनों शामिल थे, ने प्रारंभिक राष्ट्रवादी आंदोलन को आकार दिया।

 

1.2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना: उद्देश्य और प्रारंभिक पृष्ठभूमि (Founding of the Indian National Congress: Objectives and Early Background)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की स्थापना 1885 में ब्रिटिश भारत में राजनीतिक जागृति के एक महत्वपूर्ण दौर में हुई थी इसकी स्थापना शिक्षित भारतीयों के बीच अपने राजनीतिक अधिकारों और एक अखिल भारतीय मंच की आवश्यकता के बारे में बढ़ती जागरूकता से हुई, ताकि वे अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त कर सकें इसका प्रारंभिक उद्देश्य शिक्षित भारतीयों के लिए सरकार में अधिक हिस्सेदारी प्राप्त करना और शिक्षित भारतीयों तथा ब्रिटिश राज के बीच नागरिक और राजनीतिक संवाद के लिए एक मंच तैयार करना था  

 

INC की स्थापना से पहले, सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे प्रमुख व्यक्तियों ने प्रारंभिक राष्ट्रवादी सम्मेलनों के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दिसंबर 1883 में, बनर्जी ने कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें भारत के बीस से अधिक शहरी क्षेत्रों के हिंदू और मुस्लिम शामिल थे। अगले वर्ष, कलकत्ता के कई वकीलों ने, कुछ मुसलमानों के साथ, राजनीतिक गतिविधियों के लिए एक आधार प्रदान करने के लिए इंडियन यूनियन का गठन किया

 

एलन ऑक्टेवियन ह्यूम (Allan Octavian Hume), एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश सिविल सेवक, ने सरकार में राजनीतिक भागीदारी के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मई 1885 में, ह्यूम ने प्रस्तावित भारतीय राष्ट्रीय संघ के "आंतरिक घेरे" के कुछ व्यक्तियों को एक निजी ज्ञापन प्रसारित किया, जिसमें उन्हें 25-31 दिसंबर के सप्ताह के दौरान पूना में एक नियोजित सम्मेलन के बारे में सूचित किया गया उनके मिशन के दो लक्ष्य थे: भारतीयों को उनके वैध अधिकार प्राप्त करने में मदद करना और उन्हें ब्रिटिश संबंध के लाभों को स्वीकार करने में मदद करना  

 

कांग्रेस का पहला सत्र दिसंबर 1885 में बंबई में आयोजित किया गया था, जिसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। ये प्रतिनिधि भारत के प्रत्येक प्रांत से थे, जिनमें 54 हिंदू और दो मुस्लिम शामिल थे, बाकी पारसी और जैन पृष्ठभूमि के थे डब्ल्यू.सी. बनर्जी इस पहले सत्र के अध्यक्ष थे हालांकि INC की शुरुआत एक राजनीतिक दल के बजाय "व्यक्तिगत अंतरंगता और मित्रता को बढ़ावा देने" के लिए एक मंच के रूप में हुई थी, जिसका उद्देश्य "देश के सभी प्रेमियों के बीच सभी संभावित नस्लीय, पंथ या प्रांतीय पूर्वाग्रहों को मिटाना" था, इसने भारतीय मामलों में संसदीय जांच का सुझाव दिया और शिक्षित वर्गों की परिपक्व राय को एक साथ पूल किया  

 

कांग्रेस की स्थापना के पीछे ब्रिटिश और भारतीय दोनों के अलग-अलग उद्देश्य थे, जिससे एक रणनीतिक अस्पष्टता उत्पन्न हुई। एक सिद्धांत, जिसे 'सेफ्टी वाल्व थ्योरी' के नाम से जाना जाता है, यह मानता है कि ह्यूम ने कांग्रेस का गठन इस विचार के साथ किया था कि यह भारतीयों के बढ़ते असंतोष को बाहर निकालने के लिए एक 'सेफ्टी वाल्व' के रूप में काम करेगा, जिससे ब्रिटिश शासन को खतरा हो लाला लाजपत राय जैसे गरमपंथी नेताओं ने इस सिद्धांत पर विश्वास किया हालांकि, आधुनिक भारतीय इतिहासकार इस विचार पर विवाद करते हैं। उनका मानना है कि प्रारंभिक कांग्रेस नेताओं ने ह्यूम को एक 'लाइटनिंग कंडक्टर' के रूप में चतुराई से इस्तेमाल किया ताकि ब्रिटिश दमन से सीधे प्रतिरोध से बचा जा सके और राष्ट्रवादी ताकतों को एक साथ लाया जा सके यह विरोधाभासी उत्पत्ति INC को एक ऐसे मंच के रूप में विकसित करने में मदद करती है जो शुरुआत में ब्रिटिश ढांचे के भीतर काम करता था, लेकिन धीरे-धीरे अधिक क्रांतिकारी मांगों की ओर बढ़ता गया। यह केवल ब्रिटिश परोपकारिता का परिणाम नहीं था, बल्कि भारतीय बुद्धिजीवियों की राजनीतिक दूरदर्शिता और संगठनात्मक क्षमता का भी परिणाम था, जिन्होंने एक कमजोर स्थिति को एक अवसर में बदल दिया।  

 

INC के प्रमुख उद्देश्यों में भारतीयों के बीच राष्ट्रवाद की भावना को विकसित करना और मजबूत करना शामिल था, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या प्रांत के हों। इसका उद्देश्य औपनिवेशिक शोषणकारी नीतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाना, सिविल सेवाओं और विधायी परिषदों में भारतीय प्रतिनिधित्व बढ़ाना और सरकार के सामने भारतीयों की मांगों को प्रस्तुत करना और तैयार करना था प्रारंभिक INC की समावेशी प्रकृति, जिसमें विभिन्न प्रांतों और धार्मिक पृष्ठभूमि के प्रतिनिधि शामिल थे, भविष्य के जन आंदोलनों के लिए एक महत्वपूर्ण नींव थी। इस प्रारंभिक एकता के बल पर ही यह संगठन बाद में गांधी के नेतृत्व में एक जन आंदोलन में बदल सका।

 

1.3. स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका (Central Role of Congress in the Freedom Struggle)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में एक महत्वपूर्ण और स्थायी भूमिका निभाई यह ब्रिटिश साम्राज्य में एशिया और अफ्रीका में उभरने वाला पहला आधुनिक राष्ट्रवादी आंदोलन था, जिसने अन्य उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रवादी आंदोलनों को भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया

 

कांग्रेस ने एक ऐसे मंच के रूप में काम किया जिसने विभिन्न क्षेत्रों, विचारधाराओं और समुदायों के नेताओं और विचारकों को एक साथ लाया, जिससे एक व्यापक आंदोलन का निर्माण हुआ जो पूरे उपमहाद्वीप में लाखों लोगों के साथ जुड़ा यह संगठन केवल राजनीतिक कार्यों तक सीमित नहीं था, बल्कि भारत की विविध आबादी को एक साझा राष्ट्रीय पहचान और उद्देश्य के तहत एकजुट करने में भी महत्वपूर्ण था। यह एक "बिग टेंट" पार्टी थी, जिसने विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों को एक साथ लाकर एक एकीकृत राष्ट्रीय आंदोलन का आधार तैयार किया यह समावेशी प्रकृति ही थी जिसने INC को एक संभ्रांतवादी समूह से एक जन आंदोलन में बदलने में सक्षम बनाया। यह भारतीय राष्ट्रवाद की अनूठी विशेषता को दर्शाता है, जो विभिन्न पहचानों को एक बड़े राष्ट्रीय उद्देश्य के तहत समेटने में सक्षम था, जो कई अन्य उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों से अलग था।  

 

अपने प्रारंभिक वर्षों में एक चर्चा मंच के रूप में शुरू होकर, कांग्रेस ने अगले दशकों में अपना प्रभाव बढ़ाया और विशेष रूप से 1920 और 1930 के दशक में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय आबादी को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लामबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई यह संगठन अंततः ब्रिटिश शासन के विरोध में एक महत्वपूर्ण भागीदार बन गया, जिसके 15 मिलियन से अधिक सदस्य और 70 मिलियन से अधिक प्रतिभागी थे  

 

कांग्रेस की सफलता केवल इसकी प्रारंभिक स्थापना तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसकी उल्लेखनीय अनुकूलन क्षमता में निहित थी। यह संगठन लगातार बदलती सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता को समायोजित करता रहा, विभिन्न विचारधाराओं और रणनीतियों को अपनाता रहा इस अनुकूलन क्षमता ने इसे संवैधानिक याचिकाओं से लेकर जन सविनय अवज्ञा तक अपनी रणनीतियों को बदलने की अनुमति दी, जिससे यह राष्ट्रवादी भावना के बढ़ने और विविधतापूर्ण होने के साथ-साथ प्रासंगिक और शक्तिशाली बना रहा। इसकी "बिग टेंट" (big tent) पार्टी के रूप में क्षमता ने इसे विभिन्न गुटों और विचारधाराओं को आत्मसात करने की अनुमति दी, जिससे यह स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में केंद्रीय शक्ति बन गया। स्वतंत्रता के बाद, INC भारत में प्रमुख राजनीतिक दल बन गया, जिसने देश के लोकतांत्रिक संस्थानों और शासन ढांचे को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई

  

2. कांग्रेस का प्रारंभिक चरण: उदारवादी युग (1885-1905) / Early Phase of Congress: The Moderate Era (1885-1905)


2.1. स्थापना और प्रारंभिक माँगें (Formation and Initial Demands)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी, जिसका प्रारंभिक लक्ष्य ब्रिटिश राज के तहत भारत में मध्यम सुधारों को आगे बढ़ाना था, कि तत्काल पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करना इस अवधि को उदारवादी चरण के रूप में जाना जाता है, जिसमें कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन के भीतर रहकर सुधारों की वकालत की

  

कांग्रेस की प्रारंभिक माँगें व्यापक थीं और इसमें राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक पहलू शामिल थे:

 

  • राजनीतिक/प्रशासनिक माँगें (Political/Administrative Demands):

 

    • विधायी परिषदों में भारतीयों के प्रतिनिधित्व में वृद्धि की मांग की गई

  

    • परिषदों के विस्तार और उन्हें अधिक शक्तियाँ प्रदान करने की वकालत की गई, ताकि उन्हें शासन में अधिक महत्वपूर्ण भूमिकाएँ मिल सकें  

 

    • न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने की एक प्रमुख मांग थी, ताकि एक अधिक निष्पक्ष न्याय प्रणाली सुनिश्चित हो सके

 

    • सिविल सेवाओं के भारतीयकरण पर जोर दिया गया, जिससे अधिक भारतीयों को प्रशासन और सिविल सेवाओं के उच्च स्तरों पर नियुक्त किया जा सके

 

    • भारतीय सिविल सेवा (ICS) की परीक्षाएँ भारत में भी एक साथ आयोजित करने की मांग की गई, ताकि भारतीयों के लिए इसमें शामिल होना अधिक सुलभ हो सके

  

  • आर्थिक माँगें (Economic Demands):
    • किसानों पर लगाए गए भू-राजस्व और अन्य करों को कम करने की मांग की गई, क्योंकि प्रारंभिक कांग्रेस भारत की आर्थिक स्थिति, विशेषकर उच्च भू-राजस्व मांगों के कारण कृषि संकट के बारे में चिंतित थी

  

    • भारतीयों की गरीबी को दूर करने की मांग की गई। प्रारंभिक कांग्रेस नेताओं ने भारत में बढ़ती गरीबी को उजागर किया और इसे ब्रिटिशों की आर्थिक नीतियों, जिसमें भारत से धन का निकास (drain of wealth) भी शामिल था, का परिणाम बताया

  

    • 'धन के निकास' के सिद्धांत का विरोध किया गया, जिसे दादाभाई नौरोजी जैसे नेताओं ने प्रमुखता से उठाया था। यह सिद्धांत बताता है कि भारत की गरीबी ब्रिटिश शोषण और भारत से सोने, चांदी और कच्चे माल की वार्षिक लूट का सीधा परिणाम थी

  

    • सैन्य व्यय में कमी की मांग की गई, यह मानते हुए कि इन निधियों का उपयोग भारतीयों के कल्याण के लिए बेहतर तरीके से किया जा सकता है  

 

    • स्वदेशी उद्योगों के विकास की मांग की गई, ताकि स्थानीय भारतीय उद्योगों के विकास और संवर्धन के लिए नीतियां बनाई जा सकें

  

  • सामाजिक/सामान्य माँगें (Social/General Demands):
    • आर्म्स एक्ट को रद्द करने की मांग की गई, जिसे भारतीयों के खिलाफ भेदभावपूर्ण माना जाता था

 

    • भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता सहित अधिक नागरिक स्वतंत्रता की वकालत की गई

  

    • विदेशों में भारतीय मजदूरों के साथ बेहतर व्यवहार की चिंताएँ भी उठाई गईं  

 

प्रारंभिक कांग्रेस की माँगें ब्रिटिश शासन को चुनौती देने के बजाय उसके भीतर सुधारों पर केंद्रित थीं। यह 'याचना और याचिका' (prayer and petition) की रणनीति, हालांकि बाद में इसकी आलोचना की गई, ने भारतीयों के लिए एक संगठित आवाज प्रदान की और भविष्य के अधिक मुखर आंदोलनों के लिए एक वैचारिक और संगठनात्मक आधार तैयार किया। 'धन के निकास' का सिद्धांत एक महत्वपूर्ण आर्थिक आलोचना थी जिसने ब्रिटिश शोषण को उजागर किया और राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा दिया। इन मांगों ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना के लिए एक बौद्धिक ढाँचा प्रदान किया और भारतीयों के बीच राष्ट्रीय चेतना को बढ़ाया। हालांकि ये माँगें तत्काल स्वतंत्रता के लिए नहीं थीं, लेकिन उन्होंने ब्रिटिश शासन की कमियों को व्यवस्थित रूप से उजागर किया और भविष्य के जन आंदोलनों के लिए जनता को तैयार किया, यह दिखाते हुए कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए 'वरदान' नहीं था, जैसा कि कुछ उदारवादी मानते थे।

 

2.2. प्रमुख उदारवादी नेता और उनकी कार्यप्रणाली (Key Moderate Leaders and Their Methodology)

उदारवादी चरण (1885-1905) के दौरान, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर उदारवादी नेताओं का प्रभुत्व था, जो ब्रिटिश शासन के ढांचे के भीतर संवैधानिक साधनों और सुधारों में दृढ़ता से विश्वास करते थे इन नेताओं को "उदारवादी" के रूप में जाना जाता था क्योंकि वे उदारवादी राजनीति और उदारवाद के प्रबल अनुयायी थे। वे शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीकों को अपनाकर सुधारों की मांग करने वाले प्रारंभिक राष्ट्रवादी थे

  

प्रमुख उदारवादी नेताओं में दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बदरुद्दीन तैयबजी, दिनशॉ वाचा और विलियम वेडरबर्न शामिल थे इनमें से अधिकांश नेताओं ने ब्रिटेन में शिक्षा प्राप्त की थी या वहाँ रहे थे, और दादाभाई नौरोजी जैसे व्यक्तियों से प्रभावित थे

 

उनकी कार्यप्रणाली में मुख्य रूप से ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी मांगों को औपचारिक रूप से प्रस्तुत करने के लिए याचिकाएँ, प्रस्ताव, बैठकें और अपीलें शामिल थीं वे संवाद और अनुनय में विश्वास करते थे, ब्रिटिश प्रशासन के साथ एक रचनात्मक संवाद स्थापित करने की मांग करते थे ताकि अपनी शिकायतों को व्यक्त किया जा सके और सुधारों के लिए बातचीत की जा सके। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए फायदेमंद था और उन्हें ब्रिटिशों की निष्पक्षता, न्याय और अखंडता की भावना में विश्वास था

  

उदारवादियों ने नागरिक अधिकारों जैसे भाषण, प्रेस और सभा की स्वतंत्रता पर जोर दिया और इन अधिकारों को शांतिपूर्ण तरीकों से भारतीय आबादी के लिए सुरक्षित करने का लक्ष्य रखा उन्होंने ब्रिटिश प्रणाली के मौजूदा ढांचे के भीतर काम करना पसंद किया।  

 

उदारवादियों की कार्यप्रणाली, जिसे अक्सर "3 P's" (Prayer, Petition, Protest) के रूप में वर्णित किया जाता है , ब्रिटिश शासन के प्रति उनके विश्वास और उनकी सीमित पहुंच को दर्शाती थी। हालांकि यह बाद में आलोचना का विषय बनी, इसने भारतीय राजनीतिक चेतना को जगाने और एक संगठित राजनीतिक मंच स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो भविष्य के आंदोलनों के लिए आवश्यक था। इस दृष्टिकोण ने ब्रिटिश सरकार को कुछ सुधारों, जैसे परिषदों में प्रतिनिधित्व, पर विचार करने के लिए मजबूर किया, भले ही वे सीमित थे। इसने एक राजनीतिक संस्कृति स्थापित की जहाँ भारतीय अपनी शिकायतों को संगठित तरीके से व्यक्त कर सकते थे, जो भविष्य के जन आंदोलनों के लिए एक महत्वपूर्ण आधार था, भले ही उनकी तत्काल सफलता सीमित थी।

 

उदारवादियों ने लंदन में एक ब्रिटिश समिति भी स्थापित की थी (1889 में स्थापित) जो ब्रिटेन में एक लॉबी समूह के रूप में कार्य करती थी इस समिति ने 1890 में 'इंडिया' नामक एक मुफ्त मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जो ब्रिटिश प्रेस और राजनेताओं के लिए भारतीय समाचारों का सारांश प्रस्तुत करती थी। यह पत्रिका बाद में 1898 से 1921 तक एक साप्ताहिक सदस्यता पत्रिका बन गई इस बाहरी पैरवी ने, हालांकि तुरंत पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दिलाई, लेकिन ब्रिटेन में और ब्रिटिश राजनेताओं के बीच भारतीय शिकायतों के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद की। इसने अंतरराष्ट्रीय सहानुभूति भी पैदा की और ब्रिटिश सरकार पर नैतिक दबाव डाला, जिससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भविष्य के अंतर्राष्ट्रीयकरण के लिए एक मिसाल कायम हुई। यह ब्रिटिश उदारवाद और प्रारंभिक भारतीय राष्ट्रवाद के बीच बौद्धिक संबंध को भी उजागर करता है।  

 

2.3. उदारवादी दृष्टिकोण की सीमाएँ और आलोचनाएँ (Limitations and Criticisms of the Moderate Approach)

उदारवादी चरण में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की कई सीमाएँ थीं, जिसके कारण बाद में गरमपंथी गुट का उदय हुआ। उदारवादी आंदोलन में जनभागीदारी की कमी थी और यह केवल एक संकीर्ण सामाजिक आधार तक सीमित था, जिसमें मुख्य रूप से शिक्षित, शहरी अभिजात वर्ग शामिल थे उनके ग्रामीण आबादी के साथ गहरे संबंध नहीं थे, जो भारत की अधिकांश आबादी का प्रतिनिधित्व करती थी

  

उदारवादियों को अपनी मांगों के दायरे को व्यापक बनाने में विफल रहने और जन संघर्ष की शक्ति को कम आंकने के लिए आलोचना की गई उनकी "याचना और याचिका" (prayer and petition) की कार्यप्रणाली को कई भारतीयों द्वारा कमजोर और अप्रभावी माना गया ब्रिटिश सरकार द्वारा मांगों का लगातार विरोध और दमन के कारण कांग्रेस की माँगें अगले कुछ वर्षों में अधिक कट्टरपंथी हो गईं ब्रिटिशों ने अक्सर कांग्रेस को "एक सूक्ष्म अल्पसंख्यक" कहकर खारिज कर दिया

 

उदारवादियों ने ब्रिटिश शासन के तहत भारतीयों द्वारा सामना की जाने वाली आर्थिक कठिनाइयों, जैसे व्यापक गरीबी और अकाल, को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया उदारवादियों की मुख्य सीमा उनकी जन संपर्क की कमी और ब्रिटिश शासन के प्रति उनका अत्यधिक विश्वास था। ब्रिटिशों की निरंतर अनदेखी ने एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जो उनके तरीकों को कमजोर और अप्रभावी मानता था, जिससे गरमपंथी गुट के उदय के लिए जमीन तैयार हुई। यह दर्शाता है कि स्वतंत्रता संग्राम को केवल याचिकाओं से नहीं जीता जा सकता था, बल्कि इसके लिए व्यापक जन समर्थन और अधिक मुखर कार्रवाई की आवश्यकता थी।

 

उदारवादियों का मानना था कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए फायदेमंद था और उन्हें ब्रिटिशों की न्याय और निष्ठा की भावना में विश्वास था हालांकि, ब्रिटिश सरकार से लगातार विरोध और कांग्रेस को "सूक्ष्म अल्पसंख्यक" के रूप में खारिज करना, औपनिवेशिक शासन और वास्तविक भारतीय स्व-शासन के बीच मौलिक असंगति को दर्शाता है। उदारवादी दृष्टिकोण की सीमाएँ, विशेष रूप से महत्वपूर्ण सुधारों को प्राप्त करने में उनकी अक्षमता और उनके संकीर्ण सामाजिक आधार ने, एक शून्य पैदा किया जिसे बाद में गरमपंथी गुट ने भरा। उनके तरीके, हालांकि एक बौद्धिक नींव रखी, लेकिन एक गहरी जड़ें जमाए हुए औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ अपर्याप्त साबित हुए, जो वास्तविक शक्ति छोड़ने को तैयार नहीं थी, जिससे मोहभंग और अधिक मुखर कार्रवाई की मांग हुई। इस असफलता और ब्रिटिश दमन ने अधिक मुखर और प्रत्यक्ष कार्रवाई की वकालत करने वाले गरमपंथी गुट के उदय के लिए एक मजबूत तर्क प्रदान किया। यह दर्शाता है कि राष्ट्रवादी आंदोलन को सफल होने के लिए अपनी रणनीति को बदलने और जन-आधारित आंदोलन में विकसित होने की आवश्यकता थी, जो केवल अभिजात वर्ग के दायरे से बाहर निकल सके।

 

2.4. तालिका (Table): प्रमुख उदारवादी नेता और उनकी माँगें (Key Moderate Leaders and Their Demands)

यह तालिका उदारवादी चरण के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेताओं, उनकी मुख्य मांगों और योगदानों का संक्षिप्त अवलोकन प्रदान करती है, जो प्रारंभिक राष्ट्रवाद के फोकस क्षेत्रों को उजागर करती है।

 

नेता (Leader)

प्रमुख माँगें/योगदान (Key Demands/Contributions)

कार्यप्रणाली (Methodology)

उल्लेखनीय योगदान (Notable Contribution)

दादाभाई नौरोजी (Dadabhai Naoroji)

'धन के निकास' का सिद्धांत (Drain of Wealth Theory); भू-राजस्व में कमी; भारतीय सिविल सेवा में अधिक प्रतिनिधित्व

याचिकाएँ, प्रस्ताव, ब्रिटिश संसद में पैरवी (MP के रूप में)

"भारत के ग्रैंड ओल्ड मैन" (Grand Old Man of India); INC के तीन बार अध्यक्ष

गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale)

विधायी परिषदों का विस्तार; न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करना; शिक्षा में सुधार

संवैधानिक माध्यम, संवाद, अनुनय

महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु

सुरेंद्रनाथ बनर्जी (Surendranath Banerjea)

भारतीय सिविल सेवा में समान अवसर; विधायी परिषदों में अधिक भारतीय प्रतिनिधित्व

राष्ट्रवादी सम्मेलनों का आयोजन; ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ आंदोलन

इंडियन नेशनल कॉन्फ्रेंस के आयोजक

डब्ल्यू.सी. बनर्जी (W.C. Bonnerjee)

भारतीयों के बीच व्यक्तिगत अंतरंगता और मित्रता को बढ़ावा देना; संसदीय जांच

संवाद, मित्रता को बढ़ावा देना

INC के पहले अध्यक्ष

फिरोजशाह मेहता (Pherozeshah Mehta)

विधायी परिषदों में भारतीय प्रतिनिधित्व

संवैधानिक सुधारों के माध्यम से कार्य

बंबई के प्रमुख उदारवादी नेता

 

3. राष्ट्रवाद का बढ़ता ज्वार: गरमपंथी युग (1905-1919) / Rising Tide of Nationalism: The Extremist Era (1905-1919)


3.1. गरमपंथ के उदय के कारण (Reasons for the Rise of Extremism)

 

20वीं शताब्दी की शुरुआत में, विशेष रूप से 1905 से 1918 तक, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक गरमपंथी चरण का उदय हुआ इस चरण ने राजनीतिक गतिविधियों में एक अधिक जुझारू राष्ट्रवादी दृष्टिकोण देखा। कई कारकों ने गरमपंथ के इस उदय में योगदान दिया:

 

  • बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal): 1905 में लॉर्ड कर्जन द्वारा किया गया बंगाल का विभाजन गरमपंथ के उदय के लिए एक सीधा उत्प्रेरक साबित हुआ इस विभाजन को बंगाल में राष्ट्रवाद को कमजोर करने और बंगाली पहचान को विभाजित करने का ब्रिटिश प्रयास माना गया इस घटना ने ब्रिटिश परोपकारिता में किसी भी शेष विश्वास को तोड़ दिया, जिसे उदारवादियों ने बनाए रखा था बंगाल का विभाजन केवल एक प्रशासनिक कार्य नहीं था, बल्कि एक गहरा मनोवैज्ञानिक आघात था जिसने गरमपंथी तर्क को वैध ठहराया कि संवैधानिक तरीके व्यर्थ थे। इसने सीधे स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया, जो याचिकाओं से प्रत्यक्ष, हालांकि अहिंसक, कार्रवाई की ओर एक बदलाव था, जिसने पहली बार बड़े पैमाने पर जन लामबंदी की शक्ति का प्रदर्शन किया।

  

  • उदारवादी तरीकों से असंतोष (Discontent with Moderate Methods): उदारवादी नेताओं की "याचना और याचिका" की नीति से राष्ट्रवादियों में गुस्सा और मोहभंग पैदा हुआ, क्योंकि उन्हें लगा कि ये तरीके अप्रभावी हैं और कमजोरी का संकेत हैं ब्रिटिश सरकार द्वारा लगातार विरोध और कांग्रेस को "सूक्ष्म अल्पसंख्यक" के रूप में खारिज करना, उदारवादी दृष्टिकोण की सीमाओं को उजागर करता था

  

  • अकाल और प्लेग (Famines and Plague): 1896-98 और 1899-1901 में पड़े गंभीर अकालों और 1896 के बुबोनिक प्लेग के कारण हुई भारी पीड़ा, साथ ही ब्रिटिश सरकार द्वारा इन संकटों से निपटने के तरीके ने उदारवादी नेताओं को भी निराश कर दिया

 

  • लॉर्ड कर्जन की साम्राज्यवादी नीतियाँ (Imperialist Practices of Lord Curzon): लॉर्ड कर्जन की विवादास्पद नीतियाँ, जैसे भारतीय आधिकारिक रहस्य अधिनियम, कलकत्ता कॉर्पोरेशन अधिनियम और भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, ने राष्ट्रवादियों को और अधिक क्रोधित किया

  

  • अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव (International Influence): भारत के बाहर की घटनाओं ने भी भारतीयों को साम्राज्यवादी ताकतों का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। इनमें 1896 में अबीसीनिया द्वारा इटली की हार, 1904-05 में जापान द्वारा रूस की हार, और मिस्र, तुर्की और फारस जैसे देशों में राष्ट्रवादी आंदोलन शामिल थे

  

  • धन के निकास का सिद्धांत (Drain of Wealth Theory): दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिशों की शोषणकारी प्रकृति और धन के लगातार निकास को उजागर किया, जिसे भारत में आर्थिक दुखों का कारण बताया गया राष्ट्रवादियों ने महसूस किया कि सरकार अधिकार देने के बजाय मौजूदा अधिकारों को छीन रही थी

 

  • सामाजिक-धार्मिक नेताओं की भूमिका (Role of Socio-Religious Leaders): रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद और एनी बेसेंट जैसे सामाजिक-धार्मिक नेताओं ने भारतीय जनता और शिक्षित अभिजात वर्ग के बीच की खाई को पाटने में मदद की, जिससे आत्म-सम्मान और पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा मिला, जिसने राजनीतिक कट्टरता को बढ़ावा दिया  

 

ये सभी कारक मिलकर गरमपंथी गुट के उदय के लिए एक उपजाऊ जमीन तैयार की, जो अधिक मुखर और प्रत्यक्ष कार्रवाई की वकालत करते थे।

 

3.2. गरमपंथी विचारधारा और कार्यप्रणाली: स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा (Extremist Ideology and Methodology: Swadeshi, Boycott, National Education)

गरमपंथी नेताओं ने एक जुझारू राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाया, जिसमें स्वराज्य (स्व-शासन) और भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की वकालत की गई उनकी कार्यप्रणाली उदारवादियों से भिन्न थी; गरमपंथी हिंसा में विश्वास नहीं करते थे, लेकिन ब्रिटिश शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों का पालन करते थे

  

गरमपंथियों द्वारा अपनाई गई प्रमुख कार्यप्रणालियाँ थीं:

 

  • विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग (Boycott of Foreign Goods and Use of Swadeshi Goods): इसमें विदेशी निर्मित नमक, विदेशी कपड़े और किसी भी प्रकार के विदेशी विनिमय का बहिष्कार शामिल था यहां तक कि धोबियों ने भी विदेशी कपड़े धोने से इनकार कर दिया। भारतीय उद्योगों के विकास को प्रोत्साहित करने और रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिए भारत में निर्मित वस्तुओं (स्वदेशी वस्तुओं) को बढ़ावा दिया गया। इससे स्वदेशी कपड़ा मिलों, साबुन कारखानों, बैंकों, बीमा कंपनियों आदि की स्थापना हुई उदारवादियों की आर्थिक मांगों के विपरीत, गरमपंथियों का स्वदेशी और बहिष्कार केवल विरोध नहीं था, बल्कि आर्थिक आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक दावे का एक सक्रिय कार्यक्रम था। यह आंदोलन आर्थिक रूप से ब्रिटिश हितों को सीधे प्रभावित करता था, जिससे विरोध अधिक ठोस हो गया।

  

  • राष्ट्रीय शिक्षा (National Education): विभिन्न भाषाओं में शिक्षा प्रदान करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की गई। छात्रों को अतीत की गौरवशाली विरासत सिखाई गई और उनमें राष्ट्रवादी चरित्र विकसित किया गया राष्ट्रीय शिक्षा ने सांस्कृतिक गौरव की भावना को बढ़ावा दिया और एक पीढ़ी को स्व-शासन के लिए तैयार किया, जिससे केवल प्रशासनिक समावेशन से परे एक आत्मनिर्भर, सांस्कृतिक रूप से जड़ें जमाए हुए भारत की परिकल्पना की गई।

  

  • जन लामबंदी (Mass Mobilization): गरमपंथियों ने जनता के बीच राष्ट्रवाद फैलाने और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट करने के लिए त्योहारों और मेलों का उपयोग किया बाल गंगाधर तिलक द्वारा गणेश चतुर्थी और शिवाजी जयंती जैसे त्योहारों को लोकप्रिय बनाना इसका एक प्रमुख उदाहरण है यह आम लोगों से सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों के माध्यम से जुड़ने का एक सचेत प्रयास था, जिसे शिक्षित अभिजात वर्ग के उदारवादियों ने काफी हद तक अनदेखा किया था। इस रणनीति ने राष्ट्रवाद को समाज में गहराई तक प्रवेश करने की अनुमति दी, जिससे यह अंग्रेजी-शिक्षित शहरी केंद्रों से आगे बढ़ गया। इसने प्रदर्शित किया कि सांस्कृतिक गौरव और लोकप्रिय प्रतीक राजनीतिक लामबंदी के शक्तिशाली उपकरण हो सकते हैं, जिससे गांधी की ग्रामीण जनता तक सांस्कृतिक रूप से प्रासंगिक तरीकों से पहुंचने की बाद की सफलता के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ।  

 

गरमपंथी 'स्वधर्म' और 'स्वराज' के विचारों में विश्वास करते थे उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ खुले आंदोलन और दबाव की वकालत की, और ब्रिटिश शासन के खिलाफ भावनात्मक आक्रोश जगाने में सक्रिय रूप से शामिल थे, जनता को स्वराज्य प्राप्त करने के संघर्ष के लिए तैयार कर रहे थे और उनमें आत्म-सम्मान, आत्मनिर्भरता और अपनी प्राचीन विरासत पर गर्व की भावना पैदा कर रहे थे अरविंद घोष ने कहा था, "राजनीतिक स्वतंत्रता एक राष्ट्र की जीवन-साँस है"

  

3.3. प्रमुख गरमपंथी नेता: लाल-बाल-पाल (Key Extremist Leaders: Lal-Bal-Pal)

गरमपंथी चरण के कुछ प्रमुख नेता थे जिन्हें सामूहिक रूप से "लाल-बाल-पाल" तिकड़ी के रूप में जाना जाता है। इनमें लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल शामिल थे, साथ ही अरविंद घोष भी एक प्रमुख गरमपंथी व्यक्ति थे

  

  • लाला लाजपत राय (Lala Lajpat Rai): उन्हें "पंजाब केसरी" या "पंजाब के शेर" के नाम से जाना जाता था, जो उनके उग्रवादी राष्ट्रवाद के कारण था उन्होंने आर्य समाज के प्रभाव में लाहौर में राष्ट्रीय स्कूल की स्थापना की साइमन कमीशन के खिलाफ अपने प्रदर्शनों के दौरान उन्हें लाठीचार्ज में बेरहमी से पीटा गया था

  

  • बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak): उन्हें "लोकमान्य तिलक" के नाम से भी जाना जाता था। उन्होंने प्रसिद्ध नारा दिया, "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा!" तिलक ने दक्कन एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की और फर्ग्यूसन कॉलेज के सह-संस्थापक थे उन्होंने गणेश चतुर्थी और शिवाजी जयंती जैसे त्योहारों को लोकप्रिय बनाया, जिनका उपयोग जनता के बीच राष्ट्रवाद फैलाने और उन्हें एकजुट करने के लिए किया गया उन्होंने 'केसरी' (मराठी) और 'मराठा' (अंग्रेजी) नामक समाचार पत्र शुरू किए 1916 में उन्होंने अखिल भारतीय होम रूल लीग की शुरुआत की

  

  • बिपिन चंद्र पाल (Bipin Chandra Pal): अरविंद घोष ने उन्हें "राष्ट्रवाद के सबसे शक्तिशाली पैगंबरों में से एक" कहा था उन्हें भारत में क्रांतिकारी विचारों के जनक के रूप में जाना जाता है उन्होंने जनता के बीच स्वराज्य के विचार को लोकप्रिय बनाया और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को प्रोत्साहित किया

  

  • अरविंद घोष (Aurobindo Ghosh): उन्होंने 'बंदे मातरम' नामक एक अंग्रेजी समाचार पत्र शुरू किया उन्होंने ICS परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन जानबूझकर खुद को अयोग्य घोषित कर दिया क्योंकि उनकी इसमें रुचि नहीं थी। भारत लौटने पर, उन्हें बड़ौदा राज्य सेवाओं में रोजगार मिला  

 

इन नेताओं ने अपनी करिश्माई नेतृत्व क्षमता और सांस्कृतिक लामबंदी के माध्यम से राष्ट्रवादी पहुंच का विस्तार किया। उदारवादियों के विपरीत, जिन्होंने संवैधानिक साधनों पर भरोसा किया, इन नेताओं ने "त्योहारों और मेलों" का उपयोग करके "जनता के बीच राष्ट्रवाद फैलाया और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट किया" यह रणनीति राष्ट्रवाद को समाज में गहराई तक प्रवेश करने की अनुमति देती थी, जिससे यह अंग्रेजी-शिक्षित शहरी केंद्रों से आगे बढ़ गया। इसने प्रदर्शित किया कि सांस्कृतिक गौरव और लोकप्रिय प्रतीक राजनीतिक लामबंदी के शक्तिशाली उपकरण हो सकते हैं, जिससे गांधी की बाद में ग्रामीण जनता तक पहुंचने की सफलता के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ।

 

3.4. सूरत विभाजन (1907) और उसके परिणाम (Surat Split (1907) and its Consequences)

उदारवादी और गरमपंथी गुटों के बीच संघर्ष 1907 में सूरत सत्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विभाजन में परिणत हुआ

  

  • पृष्ठभूमि (Background): 1907 के सत्र से पहले, लॉर्ड मिंटो ने आगे के सुधारों के लिए उदारवादियों के साथ बातचीत शुरू की थी, जिससे गरमपंथियों को आपत्ति हुई क्योंकि उन्हें उदारवादियों की साहसिक रुख अपनाने की क्षमता पर संदेह था। इससे गरमपंथियों ने आगामी सत्र के दौरान कांग्रेस पर नियंत्रण करने का फैसला किया

  

  • विभाजन का तात्कालिक कारण (Immediate Reason for the Split): गरमपंथियों ने 1907 के सत्र के लिए नागपुर को प्राथमिकता दी, लेकिन स्थान को सूरत में बदल दिया गया, जो उदारवादियों के लिए पसंदीदा स्थान था। उदारवादियों ने तिलक को कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाने और उनके स्थान पर राश बिहारी बोस को नियुक्त करने का भी प्रयास किया इन कार्रवाइयों से क्रोधित होकर, गरमपंथियों ने सूरत शिखर सम्मेलन में उदारवादियों का सामना करने का फैसला किया।

  

  • विभाजन (The Split): पहले दिन, गरमपंथियों के आंदोलन के कारण बैठकें रोकनी पड़ीं। अगले दिन, जब निर्वाचित अध्यक्ष, राश बिहारी, बोलने के लिए उठे, तो तिलक राष्ट्रपति मंच की ओर दौड़े, जिसके बाद दोनों गुटों के बीच सीधा शारीरिक टकराव हुआ चूंकि गरमपंथी अल्पसंख्यक थे, उन्हें कांग्रेस छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा

  

  • परिणाम (Consequences): इस विभाजन का राष्ट्रवादी आंदोलन पर गंभीर परिणाम हुए:

 

    • ब्रिटिशों द्वारा शोषण (Exploitation by the British): ब्रिटिशों ने इस विभाजन का फायदा उठाया और उग्रवादी राष्ट्रवादियों को दबाने के लिए "फूट डालो और राज करो" की रणनीति का इस्तेमाल किया

 

    • उदारवादियों की स्थिति (Position of Moderates): उदारवादियों को 1909 के प्रस्तावित मॉर्ले-मिंटो सुधारों से लुभाया गया, जिसने हालांकि दिखाया कि ब्रिटिश सरकार उनके संवैधानिक राजनीति से प्रभावित नहीं थी

  

    • गरमपंथियों का दमन (Repression of Extremists): गरमपंथियों, जो मुख्य रूप से बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब तक सीमित थे, को ब्रिटिश दमन का सामना करना पड़ा

  

    • सांप्रदायिक राजनीति का उदय (Rise of Communal Politics): 1909 में मुसलमानों को अलग निर्वाचक मंडल प्रदान किए गए, जिससे भारत में सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत हुई

  

    • कांग्रेस के लिए झटका (Setback for Congress): विभाजन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए एक महत्वपूर्ण झटका था, क्योंकि दोनों गुट इसके कामकाज और राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए महत्वपूर्ण थे (उदारवादी "मस्तिष्क" के रूप में और गरमपंथी "हृदय" के रूप में)

  

    • पुनर्सक्रियण (Reactivation): कांग्रेस को केवल 1916 में लखनऊ सत्र में फिर से सक्रिय किया गया  

 

यह विभाजन दर्शाता है कि एक एकजुट विरोधी के सामने आंतरिक गुटबाजी कितनी खतरनाक हो सकती है। इस विभाजन ने राष्ट्रवादी आंदोलन को लगभग एक दशक तक काफी कमजोर कर दिया, जिससे ब्रिटिशों को अपनी स्थिति मजबूत करने और अलग निर्वाचक मंडल जैसी विभाजनकारी नीतियों को लागू करने का अवसर मिला। उदारवादियों द्वारा गरमपंथियों को बाहर धकेलने से अनजाने में कांग्रेस अपने अधिक गतिशील, जन-लामबंद करने वाले तत्व से वंचित हो गई।

 

3.5. कांग्रेस का पुनर्मिलन (लखनऊ समझौता) (Reunification of Congress (Lucknow Pact))

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पुनर्मिलन 1916 के लखनऊ सत्र में हुआ, जिसने संगठन के भीतर और मुस्लिम लीग के साथ एकता की एक नई भावना को चिह्नित किया

 

  • लखनऊ समझौता (Lucknow Pact): 1916 में, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एक दुर्लभ सहयोग का क्षण आया। बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना जैसे नेताओं ने लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें भारत की स्वतंत्रता के लिए मिलकर काम करने पर सहमति हुई इस समझौते में, कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल स्वीकार कर लिया, जो लीग की एक महत्वपूर्ण मांग थी यह समझौता विधायी और कार्यकारी परिषदों में भारतीय प्रतिनिधित्व बढ़ाने की मांग करता था और इसे हिंदू-मुस्लिम एकता का एक उच्च बिंदु माना गया  

 

यह समझौता, हालांकि ब्रिटिशों के खिलाफ तत्काल एकता के लिए एक व्यावहारिक कदम था, लेकिन इसमें एक महत्वपूर्ण रियायत थी जिसने लंबे समय तक सांप्रदायिक परिणाम दिए। मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की कांग्रेस द्वारा स्वीकृति ने धर्म के आधार पर विशिष्ट राजनीतिक पहचान के विचार को वैध ठहराया। यह रियायत, जिसका उद्देश्य मुस्लिम लीग का सहयोग सुरक्षित करना था, ने अनजाने में सांप्रदायिक विभाजनों को संस्थागत बना दिया, जिससे बाद में द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को चुनौती देना कठिन हो गया और अंततः विभाजन में योगदान मिला। यह स्वतंत्रता संग्राम में किए गए जटिल व्यापार-बंदों को उजागर करता है।

 

3.6. तालिका (Table): उदारवादी बनाम गरमपंथी: वैचारिक अंतर (Moderates vs. Extremists: Ideological Differences)

यह तालिका भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर उदारवादी और गरमपंथी गुटों के बीच मूलभूत वैचारिक अंतरों को स्पष्ट रूप से दर्शाती है, जो उनकी कार्यप्रणाली, लक्ष्यों और ब्रिटिश शासन के प्रति दृष्टिकोण में भिन्नता को उजागर करती है।

 

पहलू (Aspect)

उदारवादी (Moderates)

गरमपंथी (Extremists)

ब्रिटिश शासन में विश्वास (Belief in British Rule)

ब्रिटिश शासन की परोपकारिता और न्याय की भावना में विश्वास करते थे

ब्रिटिश शासन की भलाई में विश्वास नहीं करते थे, इसे भारत के संसाधनों का शोषण करने वाले स्वार्थी उद्देश्यों से प्रेरित मानते थे

विरोध के तरीके (Methods of Protest)

याचिकाएँ, प्रार्थनाएँ, प्रस्ताव और ब्रिटिश सरकार से अपील पर निर्भर थे

ब्रिटिशों के खिलाफ खुले आंदोलन और दबाव की वकालत करते थे, याचिकाओं तक सीमित नहीं थे

'स्वराज' का लक्ष्य (Goal of 'Swaraj')

'स्वराज' (स्व-शासन) को सुधारों के माध्यम से एक क्रमिक और प्राप्त करने योग्य लक्ष्य के रूप में देखते थे

'स्वराज' को जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे, ब्रिटिश आश्वासनों पर निर्भर नहीं, और स्व-शासन के लिए तत्काल कार्रवाई की मांग करते थे

जनता के प्रति दृष्टिकोण (Approach towards Masses)

जनता को लामबंद करने में अपेक्षाकृत सतर्क थे

ब्रिटिश शासन के खिलाफ भावनात्मक आक्रोश जगाने में सक्रिय रूप से शामिल थे, जनता को 'स्वराज' प्राप्त करने के संघर्ष के लिए तैयार करते थे

राष्ट्रवाद पर विचार (Views on Nationalism)

सुधारों की मांग करते हुए ब्रिटिश क्राउन के प्रति वफादारी पर जोर देते थे

भारत की प्राचीन विरासत और संस्कृति पर ध्यान केंद्रित करते हुए राष्ट्रवाद के अधिक मुखर और कट्टरपंथी रूप को अपनाया

कार्य कार्यक्रम (Programme of Action)

संवैधानिक तरीकों और ब्रिटिश शासकों के साथ संवाद की वकालत की

विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, 'स्वदेशी' आंदोलन, नौकरशाही के साथ असहयोग और निष्क्रिय प्रतिरोध की वकालत की

 

 

4. गांधीवादी युग और जन आंदोलन (1919-1947) / Gandhian Era and Mass Movements (1919-1947)

 

4.1. महात्मा गांधी का उदय और सत्याग्रह का दर्शन (Emergence of Mahatma Gandhi and the Philosophy of Satyagraha)

1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार और 1919 के संवैधानिक सुधारों की कथित कमजोरी के विरोध के बाद, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया, जिसमें महात्मा गांधी का उदय हुआ गांधी के नेतृत्व ने स्वतंत्रता आंदोलन को एक अभिजात वर्ग-आधारित आंदोलन से एक जन-आधारित आंदोलन में बदल दिया

 

गांधी ने अहिंसक प्रतिरोध की अपनी अनूठी पद्धति, जिसे उन्होंने "सत्याग्रह" (आत्मा बल) कहा, पेश की, जिसमें हिंसक टकराव के बजाय नैतिक और नैतिक विरोध पर जोर दिया गया उनका उद्देश्य भारतीयों को ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ लामबंद करना था गांधी का दर्शन केवल राजनीतिक प्रतिरोध तक सीमित नहीं था; यह एक समग्र दृष्टिकोण था। उनका लक्ष्य "भारतीय राजनीति की शैली को बदलना" और "भारत को पश्चिम के भौतिक मूल्यों से दूर करके पारंपरिक भारत के सरल मूल्यों की ओर वापस लाना" था चरखे के उपयोग और खादी के कपड़े पहनने को पुनर्जीवित करना कांग्रेसियों का प्रतीक बन गया, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को कमजोर करना था

  

गांधी का मानना था कि यदि भारतीय ब्रिटिशों के साथ अपना सहयोग वापस ले लेते हैं, तो ब्रिटिश राज गिर जाएगा उन्होंने इस अहिंसक प्रतिरोध तकनीक को सत्याग्रह कहा। अगस्त 1920 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने असहयोग के सिद्धांत को मंजूरी दी, और गांधी ने कांग्रेस का नेतृत्व संभाला जब उनके समर्थकों को पार्टी में सभी महत्वपूर्ण पदों पर चुना गया सत्याग्रह ने राजनीतिक मांगों से परे सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण तक स्वतंत्रता संग्राम के दायरे को विस्तृत किया। अहिंसा को पारंपरिक भारतीय मूल्यों और आर्थिक आत्मनिर्भरता से जोड़कर, गांधी ने आंदोलन को विशाल ग्रामीण आबादी के लिए सुलभ और आकर्षक बना दिया, जिससे यह एक सच्चा जन आंदोलन बन गया, कुछ ऐसा जिसे उदारवादी हासिल करने में विफल रहे और गरमपंथी केवल आंशिक रूप से प्राप्त कर पाए।

  

4.2. असहयोग आंदोलन (1920-1922) / Non-Cooperation Movement (1920-1922)

कारण, रणनीतियाँ और हिंदू-मुस्लिम एकता (Causes, Strategies, and Hindu-Muslim Unity)

असहयोग आंदोलन, जिसे महात्मा गांधी ने 1920 में शुरू किया था, ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण अध्याय था इस आंदोलन का उद्देश्य अहिंसक साधनों के माध्यम से भारतीयों को औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ एकजुट करना था

 

आंदोलन की प्रमुख रणनीतियों में शामिल थे:

 

  • ब्रिटिश वस्तुओं और संस्थानों का बहिष्कार (Boycott of British Goods and Institutions): लोगों से ब्रिटिश उत्पादों को खरीदना बंद करने और ब्रिटिश स्कूलों, अदालतों और सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करने का आग्रह किया गया। इसमें ब्रिटिश कानूनों के तहत आयोजित चुनावों का बहिष्कार भी शामिल था

  

  • स्वदेशी और खादी को बढ़ावा (Promotion of Swadeshi and Khadi): एक मुख्य रणनीति स्थानीय उत्पादों, विशेष रूप से खादी (हाथ से काता हुआ कपड़ा) को बढ़ावा देना था। कई व्यक्तियों ने घर पर खादी बनाने में भाग लिया, जिससे यह आत्मनिर्भरता का प्रतीक बन गया स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को प्रोत्साहित करने और विदेशी कपड़ों को जलाने के लिए सार्वजनिक सभाएँ आयोजित की गईं

  

  • अहिंसक प्रतिरोध और सविनय अवज्ञा (Nonviolent Resistance and Civil Disobedience): गांधी के अहिंसा के दर्शन का पालन करते हुए, अहिंसा आंदोलन का एक मुख्य सिद्धांत था। प्रदर्शनकारियों ने ब्रिटिश कानूनों के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और हड़तालों में भाग लिया, जिसका उद्देश्य सभी पृष्ठभूमि के भारतीयों के बीच एकता की भावना पैदा करना था

  

  • खिलाफत आंदोलन का समर्थन (Support for Khilafat Movement): गांधी ने खिलाफत आंदोलन (1920-24) का समर्थन किया, जिसने मुस्लिम समुदाय को एकजुट करने में मदद की और हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया  

 

 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कलकत्ता में सितंबर 1920 के एक विशेष सत्र में इस आंदोलन का आधिकारिक रूप से समर्थन किया इसने INC की रणनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव को चिह्नित किया, क्योंकि यह स्व-शासन के लिए संवैधानिक उपायों का त्याग करने को तैयार था।

  

चौरी-चौरा घटना और आंदोलन की वापसी (Chauri Chaura Incident and Withdrawal of the Movement)

असहयोग आंदोलन को 11 फरवरी, 1922 को महात्मा गांधी द्वारा चौरी-चौरा घटना के बाद वापस ले लिया गया था उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में चौरी-चौरा में, प्रदर्शनकारियों के एक समूह ने एक पुलिस स्टेशन पर हमला किया और उसमें आग लगा दी, जिसके परिणामस्वरूप कई पुलिस अधिकारियों की मौत हो गई गांधी ने महसूस किया कि इस घटना ने अहिंसा के सिद्धांत का उल्लंघन किया है उन्हें यह भी एहसास हुआ कि भारतीय जनता राष्ट्रव्यापी अहिंसक संघर्ष के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थी, क्योंकि कुछ प्रतिभागियों द्वारा अनुशासन की कमी और हिंसा की घटनाएँ हुई थीं

 

प्रभाव और विरासत (Impact and Legacy)

असहयोग आंदोलन ने विभिन्न भारतीयों को अपने साथ जोड़ा, जिससे राजनीतिक जागरूकता और भागीदारी में वृद्धि हुई यह आंदोलन सिंध, गुजरात, बिहार, संयुक्त प्रांत और पंजाब जैसे उन क्षेत्रों में सबसे सफल रहा, जो अतीत में राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं थे इसने राष्ट्रीय चेतना की भावना को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाया और भारतीय समाज में औपनिवेशिक उत्पीड़न का विरोध करने का आत्मविश्वास पैदा किया

  

यह आंदोलन जन लामबंदी के लिए एक महत्वपूर्ण परीक्षण था और अहिंसक संघर्ष की सीमाओं को उजागर करता था। इसने भविष्य के स्वतंत्रता आंदोलनों के लिए आधार तैयार किया और भारत तथा विश्व भर के न्याय और समानता के आंदोलनों को प्रेरित किया असहयोग आंदोलन ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय जनता को लामबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और गांधी को धर्मनिरपेक्षता के मुख्य नायक के रूप में स्थापित किया। इसने जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीति में भी पेश किया

 

4.3. सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-1934) / Civil Disobedience Movement (1930-1934)

 

लाहौर अधिवेशन और पूर्ण स्वराज की घोषणा (Lahore Session and Declaration of Purna Swaraj)

सविनय अवज्ञा आंदोलन (CDM) की शुरुआत से पहले, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने लक्ष्यों में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया। दिसंबर 1929 में, जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में कांग्रेस का ऐतिहासिक सत्र आयोजित किया गया था इस सत्र में, 'पूर्ण स्वराज' (पूर्ण स्वतंत्रता) का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया, जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक निर्णायक मोड़ को चिह्नित किया 31 दिसंबर, 1929 की आधी रात को, नेहरू ने रावी नदी के तट पर तिरंगा फहराया 26 जनवरी, 1930 को प्रतीकात्मक रूप से 'स्वतंत्रता दिवस' मनाया गया, और कई स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया 'पूर्ण स्वराज' की मांग ने पहले के प्रभुत्व की स्थिति के लक्ष्य से एक निश्चित विराम को चिह्नित किया। यह एक प्रत्यक्ष वृद्धि थी।  

 

दांडी मार्च और नमक सत्याग्रह (Dandi March and Salt Satyagraha)

सविनय अवज्ञा आंदोलन 12 मार्च, 1930 को साबरमती आश्रम से दांडी मार्च के साथ शुरू हुआ गांधी ने दांडी पहुंचकर समुद्र के पानी से नमक बनाकर अन्यायपूर्ण नमक कानून को प्रतीकात्मक रूप से तोड़ दिया इस कानून ने ब्रिटिश सरकार को नमक उत्पादन पर पूर्ण नियंत्रण दे दिया था, यहां तक कि घरेलू खपत के लिए भी नमक कानून का गांधी का चुनाव एक रणनीतिक कदम था क्योंकि नमक हर भारतीय घर में इस्तेमाल होने वाली वस्तु थी, और घरेलू उपयोग के लिए इसके उत्पादन पर प्रतिबंध ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ व्यापक असंतोष को लामबंद किया, जिससे विभिन्न धर्मों और वर्गों के लोग एकजुट हुए दांडी मार्च शांतिपूर्ण अवज्ञा का एक प्रतिष्ठित प्रतीक बन गया और इसने पूरे देश में इसी तरह के प्रतिरोध कार्यों को प्रेरित किया यह प्रतीकात्मक कार्रवाई की शक्ति को दर्शाता है जो समाज के विभिन्न वर्गों को एकजुट कर सकती है। नमक कर, हालांकि दिखने में छोटा था, ब्रिटिश आर्थिक शोषण और अन्याय के लिए एक शक्तिशाली रूपक बन गया, जिससे गांधी 'पूर्ण स्वराज' के अमूर्त लक्ष्य को लाखों लोगों के दैनिक जीवन से जोड़ सके, जिससे अभूतपूर्व जनभागीदारी और अंतरराष्ट्रीय ध्यान सुनिश्चित हुआ।

  

जन भागीदारी, आर्थिक प्रभाव और वैश्विक ध्यान (Mass Participation, Economic Impact, and Global Attention)

सविनय अवज्ञा आंदोलन में महिलाओं, छात्रों, व्यापारियों, आदिवासियों, श्रमिकों और किसानों सहित बड़े पैमाने पर भागीदारी देखी गई आंदोलन ने ब्रिटिश प्रशासन को ठप कर दिया, जिससे करों और भू-राजस्व के गैर-भुगतान के कारण राजस्व का भारी नुकसान हुआ, और विदेशी कपड़ों के आयात में गिरावट आई

 

आंदोलन ने अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति प्राप्त की और ब्रिटिश शासन के अत्याचारों को उजागर किया, जिससे दुनिया भर में भारत के लिए समर्थक मिले वेब मिलर जैसे अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार ने धरसाना नमक कार्यों के विरोध का दस्तावेजीकरण किया, जिससे ब्रिटिश अधिकारियों के अमानवीय कार्यों को दुनिया के सामने उजागर किया गया इस आंदोलन ने कांग्रेस की स्थिति को भारत में एक अग्रणी राजनीतिक शक्ति के रूप में मजबूत किया और गांधी के नेतृत्व को एक बार फिर सामने लाया

 

गांधी-इरविन समझौता और उसके बाद (Gandhi-Irwin Pact and its Aftermath)

सविनय अवज्ञा आंदोलन की प्रभावशीलता को पहचानते हुए, ब्रिटिशों को एहसास हुआ कि उन्हें भारतीयों को कुछ शक्तियाँ देनी होंगी नवंबर 1930 में लंदन में पहला "गोलमेज सम्मेलन" आयोजित किया गया था, लेकिन इसमें सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल प्रमुख भारतीय नेताओं ने भाग नहीं लिया गांधी को जनवरी 1931 में रिहा कर दिया गया और उन्होंने वायसराय इरविन के साथ व्यापक चर्चा की।

 

गांधी-इरविन समझौता, जिसे दिल्ली पैक्ट के नाम से भी जाना जाता है, मार्च 1931 में हस्ताक्षरित किया गया था यह समझौता महत्वपूर्ण था क्योंकि इसने कांग्रेस को सरकार के बराबर खड़ा कर दिया ब्रिटिश सरकार ने कई बातों पर सहमति व्यक्त की: हिंसा के दोषी ठहराए गए सभी राजनीतिक कैदियों की तत्काल रिहाई; सभी अप्रत्यक्ष जुर्मानों की माफी; सरकार द्वारा जब्त की गई और अभी तक तीसरे पक्ष को नहीं बेची गई सभी भूमि की वापसी; इस्तीफा देने वाले सरकारी कर्मचारियों के लिए नरमी; उपभोग के लिए नमक बनाने का अधिकार (लेकिन बिक्री के लिए नहीं); शांतिपूर्ण धरना देने का अधिकार; और आपातकालीन अध्यादेशों की वापसी बदले में, कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को निलंबित करने और गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने पर सहमति व्यक्त की इस समझौते ने कांग्रेस की स्थिति को मजबूत किया और गांधी के नेतृत्व को एक बार फिर सामने लाया  

 

दूसरा गोलमेज सम्मेलन अनिर्णायक रहा, गांधी भारत लौट आए और सविनय अवज्ञा आंदोलन फिर से शुरू कर दिया अंततः, भारत सरकार अधिनियम, 1935 पारित किया गया, जिसने सरकार के एक प्रतिनिधि रूप की अनुमति दी 1937 में चुनाव हुए, जिसमें कुछ लोगों को वोट देने का अधिकार मिला, और कांग्रेस ने ब्रिटिश भारत के 11 प्रांतों में से 8 में जीत हासिल की  

 

सविनय अवज्ञा आंदोलन, जिसमें अकेले दांडी मार्च के दौरान लगभग 60,000 गिरफ्तारियाँ हुईं, भारत की स्वतंत्रता के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया इसने जन संघर्ष के लिए मंच तैयार किया और लोगों में अहिंसा का अभ्यास स्थापित किया। इसने ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर किया, जिससे गोलमेज सम्मेलन हुआ और भारत की अंतिम स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बन गया सविनय अवज्ञा आंदोलन से अहिंसक प्रतिरोध की विरासत ने भारतीयों और विश्व स्तर पर स्वतंत्रता संघर्षों को प्रेरित किया, जो एकजुट लोगों और अहिंसक प्रतिरोध की शक्ति का एक वसीयतनामा के रूप में कार्य करता है  

 

4.4. भारत छोड़ो आंदोलन (1942) / Quit India Movement (1942)

 

पृष्ठभूमि और "करो या मरो" का आह्वान (Background and the "Do or Die" Call)

भारत छोड़ो आंदोलन 8 अगस्त, 1942 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक राष्ट्रव्यापी विरोध के रूप में शुरू किया गया था यह आंदोलन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के प्रति बढ़ती असंतोष और द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थितियों से प्रेरित था 1942 में क्रिप्स मिशन की विफलता, जो भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांगों को पूरा करने में विफल रहा, ने जनता के समर्थन को और मजबूत किया ब्रिटेन की युद्ध में भागीदारी ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए तत्काल आवश्यकता पैदा की

  

गांधी के "करो या मरो" के आह्वान ने प्रतिरोध की ज्वाला को प्रज्वलित किया, जिससे लोगों को ब्रिटिश शासन के खिलाफ अहिंसक सविनय अवज्ञा में शामिल होने का आग्रह किया गया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ब्रिटिश युद्ध प्रयासों से अपना समर्थन और सहयोग वापस ले लिया

 

राष्ट्रव्यापी भागीदारी और ब्रिटिश दमन (Nationwide Participation and British Repression)

इस आंदोलन में देश के हर कोने से भागीदारी देखी गई, जिसमें वर्ग, जाति और धर्म की सीमाएँ पार की गईं जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे प्रमुख नेताओं ने जनता को लामबंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन, हड़तालें और सविनय अवज्ञा के कार्य हुए, जिसने ब्रिटिश प्रशासनिक मशीनरी के कामकाज को बाधित कर दिया। टेलीफोन के तार काट दिए गए, ट्रेन की पटरियाँ नष्ट कर दी गईं, पुलिस स्टेशनों पर धावा बोला गया, और प्रमुख सरकारी कार्यालयों पर कांग्रेस के झंडे फहराए गए  

 

ब्रिटिश अधिकारियों ने क्रूर दमन के साथ जवाब दिया, जिसमें महात्मा गांधी सहित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हजारों नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया बड़े पैमाने पर कोड़े मारे गए और लाठीचार्ज किए गए, और पुलिस फायरिंग में लगभग 10,000 लोगों की मौत हुई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर दिया गया और उसके कार्यालयों पर छापा मारा गया

 

प्रतीकात्मक और दीर्घकालिक प्रभाव (Symbolic and Long-Term Impact)

हालांकि इस आंदोलन ने तत्काल अपना लक्ष्य हासिल नहीं किया, लेकिन इसने भारत की स्वतंत्रता की दिशा में एक अमिट छाप छोड़ी इसने स्वतंत्रता संग्राम में नई ऊर्जा का संचार किया और मुक्ति की गति को तेज किया इसने भारतीय जनता के दृढ़ संकल्प और एकता का प्रदर्शन किया

 

इस आंदोलन ने राष्ट्रवादी भावनाओं को तेज किया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए सार्वजनिक समर्थन को मजबूत किया यह बाद की वार्ताओं के लिए एक उत्प्रेरक था इस आंदोलन ने ब्रिटिशों को यह स्पष्ट संदेश दिया कि वे अब भारतीयों के सहयोग के बिना शासन नहीं कर सकते इसने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के लिए मार्ग प्रशस्त किया यह आंदोलन, अपने क्रूर दमन और तत्काल सफलता की कमी के बावजूद, सत्ता की गतिशीलता को मौलिक रूप से बदल दिया। इसने ब्रिटिशों को एक स्पष्ट संदेश दिया कि उनका शासन शासितों की सहमति के बिना अब टिकाऊ नहीं था, जिससे स्वतंत्रता की समय-सीमा तेज हो गई। इसने कांग्रेस की भूमिका को भारतीय स्वतंत्रता की आकांक्षाओं की निर्विवाद आवाज के रूप में भी मजबूत किया।  

 

इस आंदोलन ने युवा पीढ़ियों को प्रेरित किया और भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) जैसे अधिक कट्टरपंथी समूहों के उदय का कारण बना  

 

5. कांग्रेस के प्रमुख नेता और उनका योगदान / Key Leaders of Congress and Their Contributions

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सफलता उसके विविध और प्रभावशाली नेतृत्व के कारण संभव हुई। महात्मा गांधी के अलावा, कई अन्य प्रमुख नेताओं ने आंदोलन को आकार देने और भारत को स्वतंत्रता की ओर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

5.1. जवाहरलाल नेहरू: स्वतंत्रता में भूमिका और राजनीतिक दर्शन (Jawaharlal Nehru: Role in Independence and Political Philosophy)

जवाहरलाल नेहरू, जिनका जन्म 1889 में इलाहाबाद में हुआ था, ने अपनी शिक्षा ब्रिटेन के हैरो स्कूल और कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में प्राप्त की हालांकि उन्होंने शुरू में बैरिस्टर बनने की योजना बनाई थी, लेकिन उन्होंने अपनी योग्यता परीक्षा पूरी करने से पहले 1912 में भारत लौट आए और राष्ट्रवादी आंदोलन में शामिल हो गए

  

1919 के अमृतसर नरसंहार के बाद, उन्होंने महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना शुरू किया 1929 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेता चुना गया उन्होंने 1929 के लाहौर सत्र की अध्यक्षता की, जहाँ पूर्ण स्वराज की घोषणा की गई गांधी के एक करीबी सहयोगी के रूप में, नेहरू ने अहिंसक प्रतिरोध का समर्थन किया, ब्रिटिशों के साथ बातचीत में मदद की, और भारतीय स्वतंत्रता के लिए जोरदार आवाज उठाई, जिसके लिए ब्रिटिशों ने उन्हें 1930 और 1940 के दशक के दौरान नौ बार कैद किया 1947 में, जब भारत और पाकिस्तान स्वतंत्र राष्ट्र बने, तो भारतीयों ने नेहरू को अपना पहला प्रधानमंत्री चुना, जिस पद पर वे 1964 में अपनी मृत्यु तक बने रहे

  

नेहरू का राजनीतिक दर्शन और आर्थिक विचार भारत की "खोज" से गहराई से प्रभावित थे, जो अक्सर महात्मा गांधी के विचारों से काफी भिन्न होते थे नेहरू की भारत की समझ और उनका राजनीतिक दृष्टिकोण भारतीय समाज की वास्तविकताओं के साथ उनके टकराव से विकसित हुआ, जिसे उन्होंने अपनी "भारत की खोज" कहा उन्होंने अपनी आरामदायक जीवन शैली और "शहर की तुच्छ राजनीति" पर शर्म और दुख व्यक्त किया, जिसने "भारत के अर्ध-नग्न बेटों और बेटियों की विशाल भीड़" को अनदेखा किया इस अनुभव ने उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को मजबूत किया और उन्हें गांधी का नामित उत्तराधिकारी बना दिया

 

आर्थिक मोर्चे पर, नेहरू के विचार गांधी के स्वदेशी (ग्राम अर्थव्यवस्था, आत्मनिर्भरता) के आर्थिक दर्शन से मौलिक रूप से भिन्न थे गांधी ने सरल घर उत्पादन और ग्राम आत्मनिर्भरता पर जोर दिया, जबकि नेहरू ने औद्योगीकरण और बड़े पैमाने पर नियोजन में विश्वास किया, यह कहते हुए कि "मैं ट्रैक्टरों और बड़ी मशीनरी के पक्ष में हूँ" उनका केंद्रीय उद्देश्य "लोगों की भयानक गरीबी से छुटकारा पाना" था, और उन्होंने अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए 20वीं सदी के साधनों का उपयोग करने का इरादा किया नेहरू की भारत के विकास के लिए सूत्र "भारी इंजीनियरिंग और मशीन-निर्माण उद्योग, वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान और बिजली" था उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं और केंद्रीय नियोजन को अपनाते हुए एक समाजवादी मार्ग पर भारत को आगे बढ़ाया  

 

नेहरू का आधुनिकतावादी दृष्टिकोण गांधी की नैतिक क्रांति का पूरक था। कांग्रेस, गांधी के व्यापक नैतिक नेतृत्व में, विविध बौद्धिक धाराओं को समायोजित करने और रणनीतिक रूप से उपयोग करने के लिए पर्याप्त व्यापक थी। नेहरू का आधुनिक, औद्योगिक दृष्टिकोण स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण था, जिसने गांधी के आध्यात्मिक और सामाजिक आदर्शों को पूरक करते हुए आर्थिक विकास के लिए एक व्यावहारिक खाका प्रदान किया। उनके वैचारिक मतभेदों के बावजूद, उनकी साझेदारी स्वतंत्रता जीतने और भारत के भविष्य को आकार देने दोनों के लिए महत्वपूर्ण थी। नेहरू ने भारत के भीतर धार्मिक तनावों को कम करने, बहु-नस्लीय माहौल को बढ़ावा देने और जाति व्यवस्था को चुनौती देने का भी प्रयास किया

 

5.2. सरदार वल्लभभाई पटेल: स्वतंत्रता संग्राम और रियासतों का एकीकरण (Sardar Vallabhbhai Patel: Freedom Struggle and Integration of Princely States)

सरदार वल्लभभाई पटेल, जिन्हें "भारत के लौह पुरुष" के नाम से जाना जाता है, एक मजबूत और गतिशील स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अपार योगदान दिया

 

उनका जन्म 31 अक्टूबर, 1875 को गुजरात के नाडियाड गाँव में हुआ था उन्होंने कानून की पढ़ाई की और बैरिस्टर बने, जिसके बाद उन्होंने अहमदाबाद, गुजरात में कानून का अभ्यास किया अक्टूबर 1917 में महात्मा गांधी से मुलाकात के बाद पटेल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर ब्रिटिश अत्याचारों के खिलाफ गुजरात में सत्याग्रह अभियानों का नेतृत्व किया  

 

पटेल ने 1928 के बारडोली सत्याग्रह में एक अग्रणी भूमिका निभाई, जिसका उद्देश्य भूमि पर करों में कमी लाना था इस आंदोलन की सफलता ने पटेल को स्वतंत्रता आंदोलन के मुख्य नेताओं में से एक बना दिया उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और स्वयंसेवक के रूप में काम किया, जिसके लिए उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा पटेल ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों के दौरान लोगों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। "अनेकता में एकता" के सिद्धांत में उनका विश्वास उन्हें "भारत के लौह पुरुष" का खिताब दिलाता है  

 

स्वतंत्रता के बाद, सरदार पटेल ने भारत के एकीकरण में एक प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने दूर-दराज के क्षेत्रों और सीमावर्ती क्षेत्रों की यात्रा करके रियासतों के शासकों को एकजुट होने और "एक भारतएक राष्ट्र" का हिस्सा बनने के लिए राजी किया स्वतंत्रता के तुरंत बाद, उन्हें भारत के पहले गृह मंत्री और साथ ही भारतीय सशस्त्र बलों के कमांडर-इन-चीफ के रूप में नियुक्त किया गया बाद में वे भारत के पहले उप प्रधान मंत्री भी बने और 1947 से 1950 तक भारत का नेतृत्व करने वाले तीन नेताओं में से एक थे

 

पटेल का सबसे अनूठा योगदान रियासतों का एकीकरण था। गांधी और नेहरू ने राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित किया, वहीं पटेल का व्यावहारिक और दृढ़ दृष्टिकोण ("लौह पुरुष") नव स्वतंत्र राष्ट्र के भौतिक एकीकरण के लिए आवश्यक था। रियासतों को एकीकृत करने के उनके कार्य ने भारत के विखंडन को रोका, यह सुनिश्चित करते हुए कि कांग्रेस द्वारा प्राप्त राजनीतिक स्वतंत्रता एक भौगोलिक रूप से एकीकृत संप्रभु राज्य में बदल गई। यह राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक नेतृत्व की बहुआयामी प्रकृति को दर्शाता है।

 

5.3. सुभाष चंद्र बोस: उग्र राष्ट्रवाद और आज़ाद हिंद फ़ौज (Subhas Chandra Bose: Militant Nationalism and Azad Hind Fauj)

सुभाष चंद्र बोस, जिन्हें 'नेताजी' के नाम से जाना जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख नेता थे, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपने समझौताहीन और जुझारू प्रतिरोध के लिए जाने जाते थे उनका दृष्टिकोण महात्मा गांधी के संयम और समझौते से भिन्न था  

 

बोस ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया 1938 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और उन्होंने एक राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया, जिसने व्यापक औद्योगीकरण की नीति तैयार की हालांकि, गांधी और कांग्रेस नेतृत्व के साथ वैचारिक मतभेदों के कारण उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया उन्होंने 1939 में फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, जिसका उद्देश्य कांग्रेस पार्टी के सभी कट्टरपंथी तत्वों को एकजुट करना था  

 

जनवरी 1941 में, बोस ब्रिटिश नजरबंदी से भाग निकले और जर्मनी चले गए, फिर जापान उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध का लाभ उठाकर भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक जुझारू राष्ट्रवादी विद्रोह शुरू करने की परिकल्पना की उन्होंने नस्लीय सिद्धांतों को अस्वीकार कर दिया और सभी एशियाई लोगों को एक ही परिवार के सदस्य माना, जिन्हें एशिया में औपनिवेशिक प्रभुत्व को उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होना चाहिए  

 

जुलाई 1943 में, बोस सिंगापुर पहुंचे और भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) या आज़ाद हिंद फ़ौज का नेतृत्व संभाला, इसे केवल जापानी सैन्य लक्ष्यों का समर्थन करने के बजाय एक राष्ट्रवादी शक्ति के रूप में नया आकार दिया आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन पहली INA के बचे हुए सैनिकों को दक्षिण पूर्व एशिया में भारतीय नागरिक स्वयंसेवकों के बड़े प्रवाह के साथ एकजुट करके किया गया था, जो बोस के नेतृत्व और ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ हथियार उठाने के आह्वान से उत्साहित थे INA को गांधी, आज़ाद और नेहरू ब्रिगेड में संरचित किया गया था, और इसमें रानी झाँसी रेजिमेंट (महिला सैनिक) भी शामिल थी INA की अपनी मुद्रा, डाक टिकट और एक स्वतंत्र भारत की परिकल्पना को चित्रित करने वाले प्रतीक थे बोस ने भारतीय तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में और टैगोर के गीत 'जन गण मन अधिनायक' को राष्ट्रीय गान के रूप में पेश किया। उन्होंने 'जय हिंद' को राष्ट्रीय अभिवादन के रूप में भी स्थापित किया, जिससे सभी भारतीयों के बीच जाति और पंथ की परवाह किए बिना एकता पैदा हुई  

 

1944 में, INA ने इम्फाल और कोहिमा से भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया, लेकिन यह अभियान अंततः विफल रहा द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी की हार ने इसकी उम्मीदों को धूमिल कर दिया  

 

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, ब्रिटिशों ने 1945-46 में INA परीक्षण या लाल किला परीक्षणों के रूप में जाने जाने वाले कई कोर्ट-मार्शल कार्यवाही की इन परीक्षणों ने राष्ट्रव्यापी सहानुभूति पैदा की कांग्रेस ने आरोपी INA अधिकारियों को कानूनी रक्षा प्रदान करने के लिए 1945 में INA रक्षा समिति की स्थापना की INA परीक्षणों और बढ़ती राष्ट्रवादी भावनाओं से उत्पन्न विस्फोटक स्थिति के जवाब में, ब्रिटिश सरकार ने भारत को सत्ता हस्तांतरित करने के विचार को तेज कर दिया  

 

बोस का जुझारू राष्ट्रवाद गांधी की अहिंसा के लिए एक समानांतर और पूरक शक्ति के रूप में कार्य करता था। INA का अस्तित्व, आंतरिक जन अहिंसक आंदोलनों (कांग्रेस) के साथ मिलकर, ब्रिटिशों पर एक चिमटा प्रभाव पैदा करता था। इसने प्रदर्शित किया कि भारत की स्वतंत्रता की मांग एक समान नहीं थी और विरोध के एक रूप को स्वीकार करने में विफलता दूसरे, अधिक हिंसक, रूप को जन्म दे सकती है। INA की विरासत, सैन्य विफलता के बावजूद, ब्रिटिश सत्ता के लिए एक शक्तिशाली मनोवैज्ञानिक झटका और राष्ट्रीय गौरव का एक immense स्रोत थी।

 

5.4. मौलाना अबुल कलाम आज़ाद: विद्वान, राष्ट्रवादी और एकता के समर्थक (Maulana Abul Kalam Azad: Scholar, Nationalist, and Proponent of Unity)

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जिनका मूल नाम अबुल कलाम गुलाम मुहीउद्दीन था, एक प्रभावशाली इस्लामी धर्मशास्त्री और ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख नेता थे उन्होंने "आज़ाद" ("स्वतंत्र") नाम अपनाया, जिसके साथ आमतौर पर "मौलाना" (इस्लामी विद्वानों को दिया जाने वाला "मास्टर" शीर्षक) का सम्मानजनक उपसर्ग लगाया जाता था  

 

आज़ाद का जन्म 11 नवंबर, 1888 को मक्का में हुआ था उन्हें घर पर अपने पिता और अन्य इस्लामी विद्वानों से पारंपरिक इस्लामी शिक्षा मिली। हालांकि, वह भारतीय शिक्षाविद् सैयद अहमद खान के संतुलित शिक्षा पर जोर से प्रभावित थे, जिसके कारण उन्होंने गुप्त रूप से अंग्रेजी सीखी

 

उन्होंने अपने किशोरावस्था के अंत में पत्रकारिता का करियर शुरू किया। 1912 में, उन्होंने कलकत्ता में साप्ताहिक उर्दू भाषा का समाचार पत्र 'अल-हिलाल' (" क्रिसेंट") प्रकाशित करना शुरू किया। यह पत्र अपनी मजबूत ब्रिटिश विरोधी स्थिति के कारण मुस्लिम समुदाय के भीतर तेजी से प्रभावशाली हो गया, विशेष रूप से उन भारतीय मुसलमानों की आलोचना के कारण जो ब्रिटिशों के प्रति वफादार रहे परिणामस्वरूप, 'अल-हिलाल' को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया, जैसा कि उन्होंने दूसरा साप्ताहिक समाचार पत्र भी शुरू किया था। 1916 तक, उन्हें रांची (वर्तमान झारखंड राज्य में) निर्वासित कर दिया गया, जहाँ वे 1920 की शुरुआत तक रहे  

 

कलकत्ता लौटने पर, आज़ाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए उन्होंने अखिल-इस्लामी आदर्शों के प्रति अपील के माध्यम से भारत के मुस्लिम समुदाय को सक्रिय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह अल्पकालिक खिलाफत आंदोलन (1920-24) में विशेष रूप से सक्रिय थे, जिसका उद्देश्य तुर्क सुल्तान को खलीफा (दुनिया भर के मुस्लिम समुदाय के प्रमुख) के रूप में बचाना था। इस आंदोलन को महात्मा गांधी का भी संक्षिप्त समर्थन मिला  

 

आज़ाद और महात्मा गांधी के बीच घनिष्ठ संबंध विकसित हुए। आज़ाद ने गांधी के विभिन्न सविनय अवज्ञा (सत्याग्रह) अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लिया, जिसमें 1930 का नमक मार्च भी शामिल था उन्हें 1920 और 1945 के बीच कई बार कैद किया गया, जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश विरोधी भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भागीदारी भी शामिल थी आज़ाद ने दो बार कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया: 1923 में और फिर 1940 से 1946 तक उनके दूसरे कार्यकाल के अधिकांश समय में, पार्टी काफी हद तक निष्क्रिय थी क्योंकि उसके अधिकांश नेतृत्व को कैद कर लिया गया था।  

 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, आज़ाद उन भारतीय नेताओं में से थे जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिशों के साथ बातचीत की वह एक ऐसे एकीकृत भारत के कट्टर और अथक समर्थक थे जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल होंगे। उन्होंने ब्रिटिश भारत के स्वतंत्र भारत और पाकिस्तान में विभाजन का दृढ़ता से विरोध किया बाद में, उन्होंने उपमहाद्वीप के अंतिम विभाजन के लिए कांग्रेस पार्टी के नेताओं और मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना, पाकिस्तान के संस्थापक, दोनों को दोषी ठहराया विभाजन के बाद के दंगों के बाद, आज़ाद ने मुसलमानों से शांति बनाए रखने और भारत में रहने की अपील की, दिल्ली की जामा मस्जिद में एक ऐतिहासिक भाषण दिया  

 

आज़ाद का जीवन और संघर्ष धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के प्रतीक और विभाजन के त्रासदीपूर्ण व्यक्ति के रूप में सामने आता है। द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के प्रति उनका दृढ़ विरोध और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए उनकी अथक वकालत बढ़ती सांप्रदायिक लहर के बिल्कुल विपरीत थी एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी पार्टी (INC) का नेतृत्व करने वाले एक सम्मानित इस्लामी विद्वान के रूप में उनकी भूमिका कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता को उजागर करती है। विभाजन को रोकने में उनकी अंतिम विफलता, उनके बौद्धिक और नैतिक अधिकार के बावजूद, सांप्रदायिक ताकतों की अपार शक्ति को दर्शाती है, जिसे ब्रिटिश नीतियों ने और बढ़ा दिया था, और गहरी जड़ें जमाए हुए विभाजनों के सामने सबसे प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व की भी सीमाएं थीं। स्वतंत्रता के बाद शिक्षा में उनकी भूमिका यह भी दर्शाती है कि राष्ट्रवादी नेता स्वतंत्रता सेनानियों से राष्ट्र-निर्माताओं में कैसे परिवर्तित हुए।  

 

स्वतंत्रता के बाद, आज़ाद ने जवाहरलाल नेहरू की सरकार में भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य किया (1947-1958) अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने ग्रामीण और महिला शिक्षा को प्राथमिकता दी और भारत के कई शीर्ष उच्च शिक्षा संस्थानों, जैसे जामिया मिलिया इस्लामिया और पहला भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की भी स्थापना की, जो भारत और अन्य देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने वाला एक सरकारी संगठन है  

 

5.5. तालिका (Table): भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख कांग्रेस नेता और उनका योगदान (Key Congress Leaders of Indian Freedom Struggle and Their Contributions)

यह तालिका भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर विविध नेतृत्व और उनके विशिष्ट योगदानों का संक्षिप्त अवलोकन प्रदान करती है, जो स्वतंत्रता आंदोलन के विभिन्न पहलुओं (राजनीतिक, सामाजिक, सैन्य, एकीकरण) में सामूहिक प्रयास को प्रदर्शित करती है।

 

नेता (Leader)

प्रमुख विचारधारा/दृष्टिकोण (Key Ideology/Approach)

प्रमुख योगदान (Major Contributions)

मुख्य शीर्षक/उपनाम (Key Title/Nickname)

महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi)

अहिंसक प्रतिरोध (सत्याग्रह), स्वदेशी, ग्राम आत्मनिर्भरता

असहयोग आंदोलन (NCM), सविनय अवज्ञा आंदोलन (CDM), भारत छोड़ो आंदोलन (QIM)

राष्ट्रपिता (Father of the Nation), बापू

जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru)

समाजवाद, औद्योगीकरण, योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था, धर्मनिरपेक्षता

पूर्ण स्वराज की घोषणा (लाहौर सत्र), ब्रिटिशों के साथ बातचीत में भूमिका, भारत के पहले प्रधानमंत्री

पंडित जी (Pandit Ji)

सरदार वल्लभभाई पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel)

एकता में विश्वास, व्यावहारिक दृष्टिकोण

बारडोली सत्याग्रह, रियासतों का एकीकरण, भारत के पहले गृह मंत्री

लौह पुरुष (Iron Man of India)

सुभाष चंद्र बोस (Subhas Chandra Bose)

उग्र राष्ट्रवाद, सशस्त्र संघर्ष

फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन, आज़ाद हिंद फ़ौज (INA) का नेतृत्व

नेताजी (Netaji)

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (Maulana Abul Kalam Azad)

धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद, हिंदू-मुस्लिम एकता, शिक्षा

खिलाफत आंदोलन में भूमिका, कांग्रेस अध्यक्ष, विभाजन का विरोध, भारत के पहले शिक्षा मंत्री

मौलाना आज़ाद

 

 

6. सांप्रदायिक राजनीति और विभाजन की ओर / Communal Politics and Towards Partition

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को ब्रिटिश "फूट डालो और राज करो" की नीति और मुस्लिम लीग के उदय के कारण सांप्रदायिक राजनीति के बढ़ते ज्वार से गंभीर रूप से चुनौती मिली।

 

6.1. ब्रिटिश "फूट डालो और राज करो" नीति (British "Divide and Rule" Policy)

भारत में सांप्रदायिकता, जिसे समाज के धार्मिक आधार पर विभाजन के रूप में परिभाषित किया जाता है, जहाँ समुदायों को परस्पर विरोधी हितों वाले के रूप में चित्रित किया जाता है, एक आधुनिक अवधारणा है। यह औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीय समाज के परिवर्तन और जन राजनीति के आगमन के परिणामस्वरूप उभरी ब्रिटिश औपनिवेशिक रणनीति "फूट डालो और राज करो" ने इन विभाजनों को बढ़ा दिया, जिससे सांप्रदायिकता के बढ़ने के लिए उपजाऊ जमीन मिली ब्रिटिशों ने बढ़ती राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर करने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जानबूझकर विभाजन को बढ़ावा दिया  

 

इस नीति के तहत कई विशिष्ट उपाय किए गए:

  • बंगाल का विभाजन (Partition of Bengal) (1905): लॉर्ड कर्जन द्वारा 1905 में बंगाल का विभाजन एक महत्वपूर्ण उपाय था। हालांकि आधिकारिक तौर पर प्रशासनिक सुविधा के लिए उचित ठहराया गया था, इसे व्यापक रूप से बंगाली आबादी को धार्मिक आधार पर विभाजित करने का प्रयास माना गया, जिसमें एक मुस्लिम-बहुल पूर्वी बंगाल और एक हिंदू-बहुल पश्चिमी बंगाल शामिल था यह कार्य सांप्रदायिक भावनाओं को और भड़काया और "फूट डालो और राज करो" रणनीति का एक स्पष्ट उदाहरण था।

  

  • पृथक निर्वाचक मंडल (Separate Electorates) (1909): 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधारों के तहत पृथक निर्वाचक मंडल की प्रणाली एक प्रमुख उपाय थी। इसने सांप्रदायिक राजनीति को संस्थागत बना दिया, जिससे विशिष्ट धार्मिक समुदायों के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र बनाए गए, जहाँ केवल उस समुदाय के सदस्य ही अपने प्रतिनिधियों के लिए मतदान कर सकते थे इसने प्रभावी रूप से मतदाताओं को धार्मिक आधार पर अलग कर दिया, इस विचार को मजबूत किया कि हिंदुओं और मुसलमानों के अलग-अलग राजनीतिक हित थे।

 

  • सामाजिक-आर्थिक असुरक्षाओं का शोषण (Exploitation of Socio-Economic Insecurities): औपनिवेशिक शासन के तहत, आर्थिक ठहराव ने सीमित नौकरियों और संसाधनों के लिए समुदायों के बीच प्रतिद्वंद्विता पैदा की। ब्रिटिश सरकार ने इन मौजूदा असुरक्षाओं का फायदा उठाया, विशेष रूप से मुसलमानों के बीच जो आधुनिक शिक्षा और व्यावसायिक अवसरों में पीछे थे, चयनात्मक रियायतें देकर। इन रियायतों को सांप्रदायिक तनावों को बढ़ावा देने और समुदायों के बीच सहयोग के बजाय प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा करने के लिए डिज़ाइन किया गया था

  

  • मुस्लिम लीग को प्रोत्साहन (Encouragement of the Muslim League): ब्रिटिशों ने मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक ताकतों का सक्रिय रूप से समर्थन किया, जिसने इन संगठनों को मजबूत किया सांप्रदायिक पुरस्कार (1932) और भारत सरकार अधिनियम (1935) जैसी ब्रिटिश नीतियों ने मुस्लिम लीग की स्थिति को और मजबूत किया, जिससे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ अपूरणीय मतभेद पैदा हुए  

 

संक्षेप में, ब्रिटिश "फूट डालो और राज करो" की नीति ने विशिष्ट विधायी उपायों और सांप्रदायिक संगठनों के रणनीतिक प्रोत्साहन के माध्यम से भारत में धार्मिक विभाजनों को व्यवस्थित रूप से गहरा किया, अंततः 1947 में देश के दुखद विभाजन में योगदान दिया। यह नीति ने गहरी, संस्थागत विभाजन पैदा किए जिन्हें राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए पार करना अविश्वसनीय रूप से कठिन साबित हुआ। इसने धार्मिक पहचान को एक राजनीतिक पहचान में बदल दिया, जिससे अपूरणीय मांगों और अंततः दुखद विभाजन का मंच तैयार हुआ। ब्रिटिश केवल मौजूदा विभाजनों पर प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे; वे नियंत्रण बनाए रखने के लिए उन्हें सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रहे थे और बढ़ा रहे थे।

 

6.2. मुस्लिम लीग का उदय और पृथक राज्य की मांग (Rise of Muslim League and Demand for a Separate State)

ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना 30 दिसंबर, 1906 को ढाका में हुई थी, जिसने एक ऐसे राजनीतिक संगठन की शुरुआत की जिसने भारत के विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई समय के साथ, लीग मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में एक विशिष्ट मुस्लिम पुरुषों के समूह से एक जन राजनीतिक दल में बदल गई, जिसने पाकिस्तान के निर्माण की वकालत की

  

  • स्थापना और प्रारंभिक उद्देश्य (Founding and Early Objectives): मुस्लिम लीग के गठन से पहले अलीगढ़ आंदोलन था, जिसने मुस्लिम शिक्षा और राजनीतिक जागरूकता को बढ़ावा दिया, और शिमला प्रतिनिधिमंडल (1906), जहाँ मुस्लिम नेताओं ने लॉर्ड मिंटो II से विशेष प्रतिनिधित्व की मांग की लीग का प्रारंभिक उद्देश्य मुसलमानों के राजनीतिक और धार्मिक अधिकारों की रक्षा करना और विधायी निकायों में उनके लिए अलग प्रतिनिधित्व सुरक्षित करना था

 

  • जिन्ना के नेतृत्व का उदय और प्रमुख माँगें (Emergence of Jinnah’s Leadership and Key Demands): मुहम्मद अली जिन्ना का नेतृत्व लीग को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति में बदलने में महत्वपूर्ण था।

 

 

    • जिन्ना के चौदह सूत्रीय कार्यक्रम (Jinnah's Fourteen Points) (1929): 1928 में, साइमन कमीशन द्वारा प्रस्तावित संसदीय सुधारों पर चर्चा के लिए सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया था। मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व वाली नेहरू रिपोर्ट ने भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस की वकालत की, लेकिन बंगाल और पंजाब में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल और सीट आरक्षण को खारिज कर दिया। मुस्लिम नेताओं द्वारा नेहरू रिपोर्ट की आलोचना के जवाब में, मुहम्मद अली जिन्ना ने मार्च 1929 में दिल्ली में एक मुस्लिम लीग सत्र में अपने चौदह सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत किए ये बिंदु लीग का घोषणापत्र और उसकी राजनीतिक रणनीति का आधारशिला बन गए, जिसमें मुस्लिम राजनीतिक मांगों को रेखांकित किया गया।

  

    • लाहौर प्रस्ताव (Lahore Resolution) (1940): 1940 तक, जिन्ना के नेतृत्व में, लीग ने विभाजन के पक्ष में रुख अपनाया। 1940 में लाहौर में अपने सत्र में, लीग ने उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों में मुसलमानों के लिए "स्वतंत्र राज्यों" की वकालत करने वाला एक प्रस्ताव पारित किया जहाँ वे बहुमत में थे इस प्रस्ताव को बाद में पाकिस्तान प्रस्ताव कहा गया और यह 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के लिए वैचारिक आधार बन गया

 

  • पृथक मुस्लिम राज्य की बढ़ती मांग (Increasing Demand for a Separate Muslim State): लीग की पृथक मुस्लिम राज्य की मांग समय के साथ तेज होती गई, जो भारत के विभाजन में परिणत हुई।

 

    • लखनऊ समझौता (Lucknow Pact) (1916): शुरू में, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सहयोग की अवधि थी। तिलक और जिन्ना जैसे नेताओं ने लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें भारत की स्वतंत्रता के लिए मिलकर काम करने पर सहमति हुई कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल स्वीकार कर लिया, जो लीग की एक महत्वपूर्ण मांग थी, जिसने हालांकि, भारत में सांप्रदायिक राजनीति के उदय में भी योगदान दिया

  

    • प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस (Direct Action Day) (1946): पाकिस्तान के निर्माण पर जोर देने के लिए, मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में ऑल-इंडिया मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त, 1946 को प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस के रूप में एक सांप्रदायिक हड़ताल का आह्वान किया इससे कलकत्ता में व्यापक सांप्रदायिक दंगे हुए, जिसके परिणामस्वरूप हजारों मौतें हुईं और संपत्ति का विनाश हुआ हिंसा ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को गहरा किया और विभाजन की मांग को तेज किया  

 

मुस्लिम लीग की यात्रा दर्शाती है कि अल्पसंख्यक के लिए सुरक्षा उपायों की प्रारंभिक मांगें, विशिष्ट राजनीतिक परिस्थितियों और बाहरी हेरफेर के तहत, पूर्ण अलगाव की मांगों में कैसे बदल सकती हैं। कांग्रेस की प्रारंभिक रियायतें, हालांकि एकता के उद्देश्य से थीं, ने अनजाने में सांप्रदायिक मंच को मजबूत किया, जिससे पाकिस्तान की अंतिम मांग संस्थागत धार्मिक राजनीति की एक तार्किक, हालांकि दुखद, परिणति प्रतीत हुई।

 

6.3. कांग्रेस का सांप्रदायिकता के प्रति रुख और विभाजन की अनिच्छुक स्वीकृति (Congress's Stance on Communalism and Reluctant Acceptance of Partition)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने शुरू में भारत के विभाजन का दृढ़ता से विरोध किया महात्मा गांधी ने विभाजन का कड़ा विरोध किया, इसे सभी धर्मों के भारतीयों के बीच एकता के उनके दृष्टिकोण के विपरीत मानते हुए उनका मानना था कि "हिंदू और मुस्लिम भारत की एक ही मिट्टी के बेटे थे; वे भाई थे जिन्हें इसलिए भारत को स्वतंत्र और एकजुट रखने का प्रयास करना चाहिए" खुदाई खिदमतगार के खान अब्दुल गफ्फार खान ने भी भारत के विभाजन का कड़ा विरोध किया, इसे गैर-इस्लामी मानते हुए और एक सामान्य इतिहास के विपरीत जहाँ मुसलमानों ने एक सहस्राब्दी से अधिक समय तक भारत को अपनी मातृभूमि माना था मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने भी विभाजन का विरोध किया, इसे "अपनी विरासत को छोड़ने की कायरता" के रूप में देखा और तर्क दिया कि यदि भारत को दो राज्यों में विभाजित किया जाता है, तो पूरे देश में अल्पसंख्यक के रूप में बिखरे हुए साढ़े तीन करोड़ मुस्लिम कमजोर होंगे

 

हालांकि, कांग्रेस ने बाद में कैबिनेट मिशन योजना की विफलता के बाद अनिच्छा से विभाजन को स्वीकार कर लिया कांग्रेस के अनुसार, यह "भारत की ओर से अपरिहार्य" था

 

यह एक जटिल ऐतिहासिक त्रासदी को उजागर करता है, जहाँ राजनीतिक व्यवहार्यता और हिंसा की भयावह वास्तविकता ने गहरे बैठे आदर्शों को पीछे छोड़ दिया। कांग्रेस नेतृत्व द्वारा सांप्रदायिक नेताओं के साथ बातचीत ने उनकी राजनीति को वैध बना दिया, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी मुसलमानों को हाशिए पर धकेल दिया मुसलमानों को राष्ट्रवादी आंदोलन में एकीकृत करने में विफलता ने सांप्रदायिकता को गहरा होने दिया  

 

यह दर्शाता है कि ब्रिटिश राज के अंतिम वर्षों में कांग्रेस नेतृत्व द्वारा सामना किए गए भारी दबाव और कठिन विकल्पों को दर्शाता है। एक एकजुट, धर्मनिरपेक्ष भारत के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बावजूद, ब्रिटिश नीतियों और मुस्लिम लीग की अटूट मांग से exacerbated गहरी जड़ें जमाए हुए सांप्रदायिक विभाजनों ने एक ऐसी स्थिति पैदा की जहाँ विभाजन स्वतंत्रता प्राप्त करने का एकमात्र तरीका प्रतीत होता था, बिना पूर्ण गृहयुद्ध के।

 

6.4. कैबिनेट मिशन योजना (1946) और उसकी विफलता (Cabinet Mission Plan (1946) and its Failure)

1946 में, ब्रिटिश सरकार ने भारत को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए कैबिनेट मिशन योजना भेजी, क्योंकि भारत पर ब्रिटिश नियंत्रण कमजोर हो रहा था

  

  • प्रस्ताव (Proposals): कैबिनेट मिशन ने एक संघीय संरचना का प्रस्ताव रखा, जिसमें भारत को एकजुट रखा जाएगा लेकिन क्षेत्रों को महत्वपूर्ण स्वायत्तता प्रदान की जाएगी इसने पाकिस्तान की मांग को सीधे खारिज कर दिया, यह मानते हुए कि विभाजन से गंभीर आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक चुनौतियाँ पैदा होंगी योजना ने मौजूदा प्रांतीय विधानसभाओं को तीन खंडों में समूहित करने का भी प्रस्ताव रखा  

 

  • प्रतिक्रियाएँ और विफलता (Reactions and Failure):
    • कांग्रेस की प्रतिक्रिया (Congress's Reaction): कांग्रेस ने शुरू में योजना को स्वीकार कर लिया, क्योंकि इसने एक संयुक्त भारत की अनुमति दी थी। हालांकि, इसने प्रांतों के अनिवार्य समूहन के प्रस्ताव पर आपत्ति जताई, खासकर जब ऐसा लग रहा था कि यह मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों को महत्वपूर्ण स्वायत्तता प्रदान करेगा 10 जुलाई, 1946 को जवाहरलाल नेहरू का बयान कि कांग्रेस समूहन से बाध्य नहीं थी, ने जिन्ना को नाराज कर दिया

 

    • मुस्लिम लीग की प्रतिक्रिया (Muslim League's Reaction): मुस्लिम लीग ने शुरू में योजना को स्वीकार कर लिया, खासकर इसलिए क्योंकि इसने मुस्लिम-बहुल प्रांतों को अपने स्वयं के स्वायत्त समूह बनाने की अनुमति दी थी हालांकि, कांग्रेस द्वारा अनिवार्य समूहन के विचार का विरोध करने के बाद उन्होंने मिशन को खारिज कर दिया, इसे मुस्लिम हितों और पाकिस्तान की उनकी मांग के विश्वासघात के रूप में देखा  

 

कैबिनेट मिशन अंततः कांग्रेस और मुस्लिम लीग के अपने मतभेदों को सुलझाने में असमर्थता के कारण विफल रहा, विशेष रूप से प्रांतों के अनिवार्य समूहन और प्रांतों के बाद में समूहों से बाहर निकलने की स्पष्टता की कमी पर यह विफलता 16 अगस्त, 1946 को प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस का कारण बनी, जिसने व्यापक सांप्रदायिक हिंसा की शुरुआत को चिह्नित किया

  

कैबिनेट मिशन एक संयुक्त भारत के लिए अंतिम, विफल प्रयास था, जो अविश्वास और राजनीतिक दांवपेच से कमजोर हो गया था। यह दर्शाता है कि एक अच्छी तरह से इरादा वाली योजना भी गहरे अविश्वास की खाई को पाटने में विफल रही। कैबिनेट मिशन योजना की विफलता एक निश्चित क्षण था जिसने एक संयुक्त भारत के भाग्य को सील कर दिया। इसने प्रदर्शित किया कि एकता के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, भले ही कुछ लोगों के बीच मौजूद थी, प्रमुख दलों की कठोर स्थितियों और बढ़ती सांप्रदायिक तनावों के खिलाफ अपर्याप्त थी। नेहरू का बयान, चाहे इरादा हो या नहीं, ने जिन्ना को योजना को छोड़ने और विभाजन पर जोर देने का औचित्य प्रदान किया, जिससे सीधे प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस पर हिंसा का विस्फोट हुआ।

 

6.5. प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस (1946) और बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा (Direct Action Day (1946) and Escalating Communal Violence)

प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस, जिसे 1946 के कलकत्ता दंगों के रूप में भी जाना जाता है, 16 अगस्त, 1946 को हुआ था इसे ऑल-इंडिया मुस्लिम लीग द्वारा "प्रत्यक्ष कार्रवाई" के रूप में शुरू किया गया था, जिसमें ब्रिटिशों के भारत से जाने के बाद एक अलग मुस्लिम मातृभूमि की मांग के लिए सामान्य हड़ताल और आर्थिक बंद शामिल था यह दिन कलकत्ता में मुसलमानों और हिंदुओं के बीच व्यापक सांप्रदायिक हिंसा में तेजी से बदल गया, जिसने "लॉन्ग नाइव्स का सप्ताह" की शुरुआत को चिह्नित किया

 

  • कारण (Causes): प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस बढ़ती राजनीतिक तनावों और सांप्रदायिक शत्रुता का परिणाम था। कैबिनेट मिशन योजना की विफलता के बाद, जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 को "प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस" के रूप में घोषित किया, ताकि एक अलग मुस्लिम मातृभूमि पर जोर दिया जा सके। उन्होंने चेतावनी दी, "हमें या तो एक विभाजित भारत मिलेगा या एक नष्ट भारत"

  

  • उत्पन्न हुई हिंसा (Violence that Ensued): विरोध तेजी से कलकत्ता में बड़े पैमाने पर दंगों में बदल गया। प्रारंभिक प्रकोप हिंदू-बहुल क्षेत्रों में केंद्रित थे। मुस्लिम लीग की एक बड़ी रैली के बाद, कई प्रतिभागियों ने तुरंत हिंदुओं पर हमला करना और हिंदू दुकानों को लूटना शुरू कर दिया हिंसा और बढ़ गई, जिसमें हजारों लोग मारे गए और संपत्ति नष्ट हो गई  

 

  • परिणाम (Consequences): कलकत्ता के दंगों ने पूरे भारत में आगे सांप्रदायिक हिंसा को जन्म दिया, जिसमें नोआखली, बिहार, पंजाब और संयुक्त प्रांत में दंगे शामिल थे इस घटना ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को गहरा किया और विभाजन की मांग को तेज किया इसने इस विचार को मजबूत किया कि हिंदू और मुस्लिम एक साथ नहीं रह सकते ब्रिटिशों की स्थिति को नियंत्रित करने में असमर्थता उजागर हुई  

 

प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस राजनीतिक विफलता के मानव त्रासदी में प्रकट होने का एक महत्वपूर्ण बिंदु था। यह केवल एक विरोध नहीं था, बल्कि अराजकता में एक गिरावट थी, जो राजनीतिक गतिरोध और सांप्रदायिक बयानबाजी के सीधे परिणामों को दर्शाता था। इस घटना ने विभाजन को कई लोगों के लिए, जिसमें कांग्रेस नेता भी शामिल थे, अपरिहार्य बना दिया। हिंसा की भयावहता और क्रूरता ने प्रदर्शित किया कि सांप्रदायिक विभाजन एक एकजुट भारत के भीतर शांतिपूर्ण ढंग से पाटने के लिए बहुत गहरा हो गया था, प्रभावी रूप से ब्रिटिशों और कांग्रेस को विभाजन को स्वतंत्रता का एकमात्र व्यवहार्य, हालांकि दुखद, मार्ग के रूप में स्वीकार करने के लिए मजबूर किया।

 

7. निष्कर्ष: कांग्रेस की विरासत और स्वतंत्रता / Conclusion: Legacy of Congress and Independence

 

7.1. स्वतंत्रता प्राप्ति में कांग्रेस की समग्र भूमिका का मूल्यांकन (Overall Assessment of Congress's Role in Achieving Independence)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत की स्वतंत्रता संग्राम में एक केंद्रीय और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई यह एक मध्यम सुधारवादी निकाय से राष्ट्रीय मुक्ति के लिए एक अग्रणी शक्ति में बदल गया कांग्रेस ने यूनाइटेड किंगडम से भारत को स्वतंत्रता दिलाई और ब्रिटिश साम्राज्य में अन्य उपनिवेश-विरोधी आंदोलनों को भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया अंततः, भारत ने 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की

 

कांग्रेस की सफलता केवल उसकी प्रारंभिक स्थापना तक सीमित नहीं थी, बल्कि उसकी उल्लेखनीय अनुकूलन क्षमता में निहित थी। यह संगठन लगातार बदलती सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता को समायोजित करता रहा, विभिन्न विचारधाराओं और रणनीतियों को अपनाता रहा उदारवादी चरण की "चर्चा और मित्रता" से लेकर गांधी के नेतृत्व में "अहिंसक असहयोग" और "जन सविनय अवज्ञा" तक, कांग्रेस ने अपनी रणनीतियों को लगातार अनुकूलित किया। यह निरंतर रणनीतिक बदलाव इसे बदलती राजनीतिक परिदृश्यों और सार्वजनिक भावनाओं के अनुरूप प्रासंगिक और प्रभावी बनाए रखने में सहायक था। कांग्रेस की विभिन्न विचारधाराओं (उदारवादी, गरमपंथी, गांधीवादी, समाजवादी) को शामिल करने और अपनी कार्यप्रणाली (याचिकाएँ, बहिष्कार, जन सविनय अवज्ञा) को अनुकूलित करने की क्षमता इसकी दीर्घायु और अंतिम सफलता के लिए महत्वपूर्ण थी। यह एक स्थिर संगठन नहीं था, बल्कि एक गतिशील शक्ति थी जिसने सीखा और विकसित हुई, जिससे यह भारत के विविध स्वतंत्रता संग्राम के लिए केंद्रीय एकीकृत मंच बन गया।

 

7.2. भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्र निर्माण में योगदान (Contribution to Indian Democracy and Nation-Building)

स्वतंत्रता के बाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश में प्रमुख राजनीतिक दल बन गया इसने भारत के लोकतांत्रिक ढांचे और शासन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कांग्रेस ने लोकतांत्रिक संस्थानों की स्थापना की, संविधान का मसौदा तैयार किया, और आर्थिक सामाजिक विकास की नींव रखी

 

जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में, INC ने एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया, जिसमें औद्योगीकरण, सामाजिक सुधार, धर्मनिरपेक्षता और योजनाबद्ध आर्थिक विकास (पंचवर्षीय योजनाएँ) शामिल थे कांग्रेस ने राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया, लोगों को जाति, धर्म और क्षेत्र के बावजूद एक सामान्य उद्देश्य के तहत एकजुट किया धर्मनिरपेक्षता, बहुलवाद और सामाजिक न्याय पर इसका जोर भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ गया है कांग्रेस की विरासत 1947 से कहीं आगे तक फैली हुई है। इसने केवल भारत को मुक्त किया, बल्कि एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और विकासशील राष्ट्र के लिए मूलभूत वैचारिक और संस्थागत ढाँचा भी प्रदान किया। विभाजन की त्रासदी के बावजूद एकता में इसकी प्रतिबद्धता नए गणराज्य के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत बन गई।

 

7.3. भविष्य के आंदोलनों पर प्रभाव (Influence on Future Movements)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अहिंसक प्रतिरोध की विरासत ने भारत और विश्व भर में भविष्य के स्वतंत्रता आंदोलनों को प्रेरित किया इसने न्याय और समानता के लिए वैश्विक आंदोलनों को भी प्रभावित किया कांग्रेस ने एकजुट लोगों और अहिंसक प्रतिरोध की शक्ति का प्रदर्शन किया

 

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, जिसका नेतृत्व INC ने किया था, ने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए सशस्त्र विद्रोह का एक शक्तिशाली, सफल विकल्प प्रदान किया। अहिंसक सविनय अवज्ञा का यह मॉडल विश्व स्तर पर उत्पीड़ित लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गया, जिससे INC का योगदान केवल राष्ट्रीय बल्कि उपनिवेशवाद और मानवाधिकार आंदोलनों के इतिहास पर सार्वभौमिक रूप से प्रभावशाली हो गया।

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