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प्रस्तावना: स्वदेशी की गूंज, आत्मनिर्भर भारत की नींव (Introduction: Echoes of Swadeshi,
Foundation of Self-Reliant India)
भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम के
इतिहास में स्वदेशी
आंदोलन एक अत्यंत
महत्वपूर्ण अध्याय
के रूप में
दर्ज है. यह
आंदोलन, जो मुख्य
रूप से 1905 से
1908 तक चला, ब्रिटिश
शासन के खिलाफ
व्यापक असंतोष और
विशेष रूप से
बंगाल विभाजन के
विरोध में जन्मा
था. इस आंदोलन
का मूल उद्देश्य
आत्मनिर्भरता को
बढ़ावा देना और
भारतीय राष्ट्रीयता की
भावना को सुदृढ़
करना था. महात्मा
गांधी ने इस
आंदोलन को 'स्वराज'
(स्वशासन) की
आत्मा कहा था.
यह आंदोलन आर्थिक
और राजनीतिक प्रतिरोध
के एक शक्तिशाली
प्रतीक के रूप
में उभरा, जिसने
ब्रिटिश औपनिवेशिक
शोषण का मुकाबला
किया.   
ऐतिहासिक स्वदेशी
आंदोलन की मूल
भावना – विदेशी वस्तुओं
का बहिष्कार और
स्वदेशी उत्पादों
का प्रचार – आधुनिक
भारत की आर्थिक
नीतियों में
भी गहराई से
प्रतिध्वनित होती
है. 'आत्मनिर्भर भारत
अभियान' और 'मेक
इन इंडिया' जैसी
समकालीन पहलें
आत्मनिर्भरता और
आर्थिक संप्रभुता की
चिरस्थायी खोज
की आधुनिक अभिव्यक्तियाँ हैं. स्वदेशी
की यह भावना,
जो एक प्रतिरोध
आंदोलन के रूप
में शुरू हुई
और अब एक
राष्ट्रीय आर्थिक
नीति का रूप
ले चुकी है,
भारत की राष्ट्रीय
चेतना में आत्मनिर्भरता
के स्थायी महत्व
को दर्शाती है.
यह दर्शाता है
कि "आत्मनिर्भरता" का विचार केवल
एक आर्थिक रणनीति
नहीं है, बल्कि
एक गहरी सांस्कृतिक
और ऐतिहासिक आकांक्षा
है, जो शोषण
के ऐतिहासिक अनुभवों
और सच्ची स्वतंत्रता
की इच्छा में
निहित है.   
स्वदेशी आंदोलन: एक ऐतिहासिक यात्रा (Swadeshi Movement: A Historical
Journey)
स्वदेशी आंदोलन
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
का एक महत्वपूर्ण
पड़ाव था, जिसने
विरोध के सशक्त
तथा नई परंपरा
की नींव रखी.
 
पृष्ठभूमि और कारण (Background and Causes)
स्वदेशी आंदोलन
का तात्कालिक कारण
लॉर्ड कर्जन द्वारा
बंगाल के विभाजन
का निर्णय था.
19 जुलाई, 1905 को घोषित
और 16 अक्टूबर, 1905 से प्रभावी हुआ
यह विभाजन, ब्रिटिश
सरकार द्वारा प्रशासनिक
दक्षता के आधार
पर उचित ठहराया
गया था. हालांकि,
भारतीय राष्ट्रवादियों ने
इसे बंगाल में
बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलन
को कमजोर करने
के लिए 'फूट
डालो और राज
करो' की ब्रिटिश
नीति के रूप
में देखा. इस
विभाजन ने व्यापक
आक्रोश को जन्म
दिया, जिसके परिणामस्वरूप
7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता
के टाउन हॉल
में एक ऐतिहासिक
बैठक में स्वदेशी
आंदोलन की औपचारिक
घोषणा की गई
और एक ऐतिहासिक
बहिष्कार प्रस्ताव
पारित किया गया.
16 अक्टूबर, 1905 को 'शोक दिवस'
के रूप में
मनाया गया और
रवींद्रनाथ टैगोर
के सुझाव पर
'राखी दिवस' के
रूप में भी
मनाया गया, जो
बंगाल की अटूट
एकता को प्रदर्शित
करने के लिए
था.  
 
विभाजन के
अलावा, इस आंदोलन
का एक गहरा
कारण भारत के
संसाधनों का
व्यापक ब्रिटिश शोषण
था, जिसने गंभीर
आर्थिक समस्याओं को
जन्म दिया और
स्वदेशी उद्योगों
को व्यवस्थित रूप
से नष्ट कर
दिया. 1835 तक विश्व
व्यापार में
33% हिस्सेदारी और
समृद्ध कुटीर उद्योगों
के साथ भारत
कभी एक वैश्विक
आर्थिक शक्ति था.
ब्रिटिश नीतियों
ने भारत को
कच्चे माल के
आपूर्तिकर्ता और
ब्रिटिश निर्मित
वस्तुओं के
बाजार तक सीमित
कर दिया, जिससे
कारीगरों में
व्यापक बेरोजगारी फैल
गई. ब्रिटिश औद्योगिक
क्रांति के
कारण भारतीय हस्तशिल्प
और हथकरघा उद्योग
का पतन हुआ,
क्योंकि ब्रिटिश
निर्मित सस्ते,
बड़े पैमाने पर
उत्पादित कपड़े
भारतीय बाजारों में
भर गए. भारतीय
वस्त्रों पर
भारी आयात शुल्क
और ब्रिटिश वस्तुओं
को भारत में
न्यूनतम शुल्क
पर अनुमति देने
जैसी नीतियों ने
भारतीय उद्योगों को
तबाह कर दिया.
   
दादाभाई नौरोजी
ने 'धन के
निकास' (Drain of Wealth) सिद्धांत
को प्रतिपादित किया,
जिसने बताया कि
कैसे भारत से
ब्रिटेन में
संसाधनों का
व्यवस्थित हस्तांतरण
हो रहा था,
जिससे भारत में
व्यापक गरीबी और
अविकसितता आ
रही थी. यह
सिद्धांत राष्ट्रवादी
आंदोलन का एक
आधार बन गया,
जिसने स्वशासन की
मांगों के लिए
एक आर्थिक आधार
प्रदान किया. नौरोजी
ने 1867 में अपने
पेपर 'इंग्लैंड्स डेट
टू इंडिया' में
और 1901 में अपनी
पुस्तक "पॉवर्टी एंड
अन-ब्रिटिश रूल
इन इंडिया" में इस अवधारणा
को विस्तृत किया,
जिसमें दावा किया
गया कि भारत
का लगभग एक-चौथाई धन, या
प्रति वर्ष लगभग
$12 मिलियन, इंग्लैंड में
स्थानांतरित हो
रहा था. ब्रिटिश
अधिकारी उच्च
वेतन, पेंशन और
भत्ते प्राप्त करते
थे, जो सभी
ब्रिटेन वापस
भेजे जाते थे,
और भारत को
ब्रिटिश प्रशासन,
सैन्य खर्च और
युद्धों के
लिए राजस्व का
एक बड़ा हिस्सा
वहन करना पड़ता
था.   
स्वदेशी आंदोलन
केवल एक राजनीतिक
विरोध के रूप
में नहीं, बल्कि
औपनिवेशिक शोषण
के लिए एक
व्यापक प्रतिक्रिया के
रूप में उभरा,
इस बात को
समझते हुए कि
आर्थिक अधीनता विदेशी
शासन का एक
मुख्य घटक थी.
 
 
प्रमुख नेता और रणनीतियाँ (Key Leaders and Strategies)
स्वदेशी आंदोलन
ने ब्रिटिश वस्तुओं
के बहिष्कार को
एक राष्ट्रीय नीति
के रूप में
औपचारिक रूप
से अपनाया. इसमें
विदेशी कपड़ों को
सार्वजनिक रूप
से जलाना और
विदेशी सामान बेचने
वाली दुकानों पर
धरना देना शामिल
था. यह बहिष्कार
उल्लेखनीय रूप
से सफल रहा;
1905 और 1908 के बीच,
विदेशी आयात में
काफी कमी आई.
उदाहरण के लिए,
मैनचेस्टर के
कपड़ों की बिक्री
में भारी गिरावट
आई, 32,000 गांठों के
स्थान पर केवल
2,500 गांठें ही बिकीं.
सिगरेट और जूते
जैसी मध्यवर्गीय वस्तुओं
के आयात में
भी गिरावट आई.
 
 
इसके साथ
ही, भारतीय निर्मित
वस्तुओं को
खरीदने के लिए
एक प्रबल अपील
की गई, जिससे
स्वदेशी उद्यमों
के लिए एक
नया उत्साह पैदा
हुआ. इस अवधि
में नई कपड़ा
और जूट मिलें,
साबुन और माचिस
के कारखाने, चमड़े
के कारखाने (जैसे
नेशनल टैनरी), बैंक
(जैसे पंजाब नेशनल
बैंक, बंगाल नेशनल
बैंक), बीमा कंपनियां
(जैसे भारत इंश्योरेंस,
नेशनल इंश्योरेंस कंपनी)
और यहां तक
कि स्टीम नेविगेशन
कंपनियां (जैसे
वी.ओ. चिदंबरम
पिल्लई की स्वदेशी
स्टीम नेविगेशन कंपनी)
भी स्थापित की
गईं.
   
लोकमान्य तिलक
जैसे प्रमुख नेताओं
ने पूना और
बंबई जैसे क्षेत्रों
में स्वदेशी और
बहिष्कार का
संदेश सक्रिय रूप
से फैलाया. उन्होंने
देशभक्ति की
भावना जगाने के
लिए गणपति और
शिवाजी उत्सवों का
आयोजन किया. सुरेंद्रनाथ
बनर्जी ने भी
आंदोलन की घोषणा
और प्रचार में
महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई. लाला लाजपत
राय (पंजाब), चिदंबरम
पिल्लई (मद्रास), सैयद
हैदर रज़ा (दिल्ली)
और बिपिन चंद्र
पाल जैसे अन्य
नेताओं ने भी
आंदोलन को देश
भर में फैलाया.
   
आत्मनिर्भरता पर
जोर शिक्षा के
क्षेत्र तक
भी फैला, जिससे
राष्ट्रीय शिक्षा
आंदोलन का उदय
हुआ. 'कार्लाइल सर्कुलर'
द्वारा सरकारी नियंत्रित
शैक्षणिक संस्थानों
के बहिष्कार ने
नेताओं को एक
समानांतर राष्ट्रीय
शिक्षा प्रणाली स्थापित
करने के लिए
मजबूर किया. बंगाल
नेशनल कॉलेज (जिसके
प्रिंसिपल अरविंदो
घोष थे), बंगाल
टेक्निकल इंस्टीट्यूट
(जो बाद में
जादवपुर विश्वविद्यालय बना), और
कई राष्ट्रीय प्राथमिक
और माध्यमिक विद्यालय
जैसी प्रमुख संस्थाएं
स्थापित की
गईं. राष्ट्रीय शिक्षा
परिषद का गठन
अगस्त 1906 में हुआ.
  
स्वयंसेवी संगठनों,
या 'समितियों' ने
जनता को संगठित
करने और स्वदेशी
व बहिष्कार के
संदेश का प्रसार
करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई. बारिसल
में अश्विनी कुमार
दत्त द्वारा स्थापित
'स्वदेश बांधव समिति'
विशेष रूप से
प्रमुख थी. इन
समितियों ने
राहत कार्य (जैसे
अकाल और महामारी
के दौरान), शारीरिक
और नैतिक प्रशिक्षण,
और शिल्प विद्यालयों
की स्थापना में
भी योगदान दिया.
  
महात्मा गांधी
ने बाद में
खादी को स्वदेशी
के प्रतीकात्मक और
व्यावहारिक प्रतीक
के रूप में
अपनाया और लोकप्रिय
बनाया. उन्होंने खादी
को "स्वराज की
आत्मा" कहा और
इसे आर्थिक आत्मनिर्भरता
और एकता प्राप्त
करने के लिए
एक शक्तिशाली उपकरण
माना. खादी, जिसकी
जड़ें प्राचीन भारतीय
परंपराओं में
हैं , ग्रामीण क्षेत्रों
में रोजगार प्रदान
करने, आत्मनिर्भरता को
बढ़ावा देने और
ग्रामीण सामाजिक
ताने-बाने को
मजबूत करने का
एक साधन बन
गई. गांधी ने
चरखे को हर
घर में पहुंचाने
और हर घर
को अपना सूत
कातने के लिए
प्रेरित करने
का लक्ष्य रखा.
उन्होंने खादी
को आर्थिक स्वतंत्रता,
स्वराज, आत्म-शुद्धि,
हिंदू-मुस्लिम एकता
और अस्पृश्यता के
अंत से जोड़ा.
उन्होंने खादी
को मंदिरों और
विवाहों में
उपयोग करने के
लिए भी प्रेरित
किया.   
स्वदेशी आंदोलन
द्वारा अपनाई गई
रणनीतियाँ अत्यधिक
नवीन थीं, जो
केवल राजनीतिक याचिकाओं
से आगे बढ़कर
आर्थिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक प्रतिरोध
को समाहित करती
थीं. मैनचेस्टर के
कपड़ों की बिक्री
में भारी गिरावट
जैसे बहिष्कार की
सफलता, आर्थिक प्रभुत्व
के खिलाफ उपभोक्ता
पसंद की शक्ति
को प्रदर्शित करती
है. राष्ट्रीय विद्यालयों
जैसे समानांतर संस्थानों
की स्थापना आत्मनिर्णय
का एक गहरा
कार्य था, जिसका
उद्देश्य एक
वैकल्पिक, स्वतंत्र
सामाजिक संरचना
का निर्माण करना
था, न कि
केवल मौजूदा औपनिवेशिक
व्यवस्था में
सुधार करना.   
प्रभाव और विरासत (Impact and Legacy)
स्वदेशी आंदोलन
का भारत पर
व्यापक प्रभाव पड़ा,
जिसमें आर्थिक, सामाजिक
और सांस्कृतिक क्षेत्र
शामिल थे. 
 
- आर्थिक प्रभाव (Economic Impact): आंदोलन
     ने विदेशी
     आयात में
     उल्लेखनीय कमी
     लाई और
     भारतीय उद्योगों को बढ़ावा
     दिया, जिससे लाभ
     और आर्थिक
     पुनरुत्थान हुआ.
     1905 से 1908 के बीच
     विदेशी वस्तुओं
     का आयात
     काफी कम
     हो गया.
     इसने भारत
     में आधुनिक
     औद्योगिक विकास
     की नींव
     रखी, जिसमें नई
     मिलें और
     कारखाने उभरे.
     स्वदेशी उद्यमों
     ने भारतीय
     उद्यमिता और
     तकनीकी कौशल
     को बढ़ावा
     दिया.
 
   
- सामाजिक प्रभाव (Social Impact): इसने
     राष्ट्रीय चेतना
     और एकता
     को बढ़ावा
     देने में
     महत्वपूर्ण भूमिका
     निभाई, विशेष रूप
     से युवाओं
     में. पहली बार,
     महिलाएं, छात्र और
     शहरी व
     ग्रामीण आबादी
     का एक
     बड़ा हिस्सा
     सक्रिय राजनीति
     में शामिल
     हुआ, सांस्कृतिक बाधाओं
     को तोड़ते
     हुए और
     महिलाओं को
     सशक्त बनाया.
     छात्रों ने
     विदेशी सामान
     बेचने वाली
     दुकानों पर
     धरना दिया
     और राष्ट्रीय शिक्षा को
     बढ़ावा दिया.
     महिलाओं ने
     स्वदेशी वस्तुओं
     का प्रचार
     किया, विदेशी वस्तुओं
     का बहिष्कार किया, और खादी
     को बढ़ावा
     दिया. कुछ महिलाओं
     ने बम
     बनाने और
     क्रांतिकारियों को
     वित्तीय सहायता
     प्रदान करने
     जैसी प्रत्यक्ष क्रांतिकारी गतिविधियों में भी
     भाग लिया.
     
 
 
- सांस्कृतिक प्रभाव (Cultural Impact): आंदोलन
     ने एक
     सांस्कृतिक पुनर्जागरण को प्रेरित
     किया, विशेष रूप
     से बंगाल
     में. बंगाल स्कूल
     के कलाकारों, जैसे अवनींद्रनाथ टैगोर (जिन्होंने 'भारत माता'
     जैसी प्रतिष्ठित पेंटिंग बनाई)
     और नंदलाल
     बोस ने
     पारंपरिक भारतीय
     कला रूपों
     को पुनर्जीवित किया, पश्चिमी कलात्मक
     प्रभुत्व को
     चुनौती दी.
     रवींद्रनाथ टैगोर
     की "आमार सोनार
     बांग्ला" जैसी साहित्यिक रचनाएँ रैली
     के बिंदु
     के रूप
     में कार्य
     करती थीं.
     डी.एल.
     रॉय, अतुल प्रसाद
     सेन और
     रजनीकांत सेन
     जैसे अन्य
     संगीतकारों ने
     भी देशभक्ति के गीत
     रचे. इसने कुटीर
     उद्योगों और
     पारंपरिक शिल्पों
     को भी
     बढ़ावा दिया.
       
 
अपनी सफलताओं
के बावजूद, स्वदेशी
आंदोलन को सीमाओं
का सामना करना
पड़ा. यह मुख्य
रूप से शहरी
क्षेत्रों तक
केंद्रित था,
किसानों तक
इसकी पहुंच सीमित
थी, जिनकी समस्याओं
को पर्याप्त रूप
से संबोधित नहीं
किया गया था.
कुछ कार्यकर्ताओं द्वारा
धार्मिक प्रतीकों
और नारों का
उपयोग, जबकि कुछ
के लिए एकजुट
करने वाला था,
अनजाने में सांप्रदायिकता को बढ़ावा
दिया, जिससे 1907 में
बंगाल में हिंदू-मुस्लिम दंगे
हुए. भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के
भीतर नरमपंथी और
चरमपंथी गुटों
के बीच वैचारिक
मतभेद गहरे हुए,
जिसका समापन 1907 के
सूरत विभाजन में
हुआ, जिसने आंदोलन
को कमजोर कर
दिया. सरकार के
कठोर दमन, जिसमें
प्रमुख नेताओं की
कारावास शामिल
थी, के कारण
यह आंदोलन 1908 के
मध्य तक धीरे-धीरे समाप्त हो
गया.   
स्वदेशी आंदोलन
की विरासत जटिल
है; यह राष्ट्रवाद
और आत्मनिर्भरता के
लिए एक शक्तिशाली
उत्प्रेरक था,
लेकिन इसने भारतीय
समाज और राजनीति
के भीतर आंतरिक
दरारें भी उजागर
कीं. धार्मिक प्रतीकों
के उपयोग के
कारण सांप्रदायिकता का
उदय इस बात
पर प्रकाश डालता
है कि राष्ट्रवाद
में एकजुट करने
और विभाजित करने
दोनों की क्षमता
होती है, एक
चुनौती जो भारत
के विविध सामाजिक
ताने-बाने में
आज भी प्रासंगिक
है. यह राष्ट्रीय
आंदोलनों में
समावेशी दृष्टिकोण
के महत्व पर
जोर देता है.
   
स्वदेशी उत्पादों की प्रोत्साहन नीति: आधुनिक भारत में प्रासंगिकता (Promotion Policy of Indigenous
Products: Relevance in Modern India)
ऐतिहासिक स्वदेशी
आंदोलन की भावना
आधुनिक भारत की
आर्थिक नीतियों में
भी गहराई से
प्रतिध्वनित होती
है, विशेष रूप
से 'आत्मनिर्भर भारत
अभियान' और 'मेक
इन इंडिया' जैसी
पहलों में.
   
आत्मनिर्भर भारत अभियान (Atmanirbhar Bharat Abhiyan)
कोविड-19 महामारी
के दौरान प्रधानमंत्री
द्वारा 'आत्मनिर्भर भारत
अभियान' (Self-Reliant India Campaign) की परिकल्पना की
गई, जिसका उद्देश्य
भारत को एक
आत्मनिर्भर राष्ट्र
बनाना है. प्रधानमंत्री
ने जोर दिया
कि वर्तमान वैश्वीकरण
के युग में
आत्मनिर्भरता का
अर्थ आत्म-केंद्रित
या अलग-थलग
होना नहीं है,
बल्कि वैश्विक प्रगति
में योगदान देना
है. यह मिशन
पाँच प्रमुख स्तंभों
पर आधारित है
: 
 
1.   अर्थव्यवस्था (Economy): वृद्धिशील
परिवर्तन के
बजाय 'क्वांटम जंप'
पर आधारित. 
 
2.   अवसंरचना (Infrastructure): आधुनिक
भारत की पहचान
बनाने वाली अवसंरचना
का निर्माण.
   
3.   प्रौद्योगिकी (Technology): 21वीं
सदी की प्रौद्योगिकी
संचालित व्यवस्था.
   
4.   गतिशील जनसांख्यिकी (Vibrant Demography): आत्मनिर्भर
भारत के लिए
ऊर्जा के स्रोत
के रूप में
भारत की युवा
आबादी.   
5.   मांग (Demand): भारत
की मांग और
आपूर्ति श्रृंखला
की पूरी क्षमता
का उपयोग.   
यह मिशन
दो चरणों में
लागू किया जा
रहा है: प्रथम
चरण में चिकित्सा,
वस्त्र, इलेक्ट्रॉनिक्स, प्लास्टिक
और खिलौने जैसे
क्षेत्रों में
स्थानीय विनिर्माण
और निर्यात को
बढ़ावा देने पर
ध्यान केंद्रित किया
गया है, जबकि
द्वितीय चरण
में रत्न और
आभूषण, फार्मा और
स्टील जैसे क्षेत्रों
को प्रोत्साहित किया
जाएगा. इस अभियान
के तहत ₹20 लाख
करोड़ (भारत के
सकल घरेलू उत्पाद
का लगभग 10%) का
एक विशेष आर्थिक
पैकेज घोषित किया
गया, जिसमें 'भूमि,
श्रम, तरलता और
कानून' (Land, Labour, Liquidity and Laws - 4Is) पर ध्यान केंद्रित
किया गया. अतिरिक्त
उपायों में ग्रामीण
रोजगार को बढ़ावा
देने के लिए
मनरेगा के आवंटन
में ₹40,000 करोड़ की
वृद्धि और स्वास्थ्य
अवसंरचना तथा
अनुसंधान में
महत्वपूर्ण निवेश
शामिल हैं. 
 
'आत्मनिर्भर भारत'
की परिकल्पना, हालांकि
ऐतिहासिक स्वदेशी
की प्रतिध्वनि है,
आत्मनिर्भरता को
एक वैश्वीकृत दुनिया
में मौलिक रूप
से पुनर्परिभाषित करती
है. यह अलगाव
के बारे में
नहीं है, बल्कि
वैश्विक आपूर्ति
श्रृंखलाओं के
भीतर भारत की
स्थिति को मजबूत
करने के बारे
में है. हालांकि,
आर्थिक पैकेज के
विश्लेषण से
घोषित आंकड़े और
लोगों तक पहुंचने
वाले वास्तविक प्रत्यक्ष
लाभ के बीच
एक संभावित अंतर
का पता चलता
है. यह इंगित
करता है कि
नीति कार्यान्वयन और
प्रभावी वितरण
तंत्र बड़े दृष्टिकोणों
को मूर्त प्रभाव
में बदलने के
लिए महत्वपूर्ण हैं.
 
मेक इन इंडिया: विनिर्माण का नया अध्याय (Make in India: A New Chapter of
Manufacturing)
25
सितंबर, 2014 को शुरू
की गई 'मेक
इन इंडिया' पहल
का उद्देश्य भारत
को एक वैश्विक
डिजाइन और विनिर्माण
केंद्र में बदलना
है. 'वोकल फॉर
लोकल' पहल इस
अभियान का एक
प्रमुख मंत्र है.
इसके प्रमुख उद्देश्यों
में विनिर्माण क्षेत्र
की विकास दर
को प्रति वर्ष
12-14% तक बढ़ाना और
2025 तक भारत के
सकल घरेलू उत्पाद
में इसकी हिस्सेदारी
को 25% तक बढ़ाना
(2022 से संशोधित) शामिल
है. इसका लक्ष्य
100 मिलियन अतिरिक्त रोजगार
के अवसर पैदा
करना भी था.
यह पहल चार
स्तंभों पर
आधारित है :
   
1.   नई प्रक्रियाएं (New Processes): उद्यमिता
को बढ़ावा देने
के लिए 'ईज
ऑफ डूइंग बिजनेस'
पर जोर.
   
2.   नई अवसंरचना (New Infrastructure): औद्योगिक
गलियारों, स्मार्ट
शहरों और विश्व
स्तरीय अवसंरचना का
विकास.  
 
3.   नए क्षेत्रक (New Sectors): रक्षा
उत्पादन, बीमा,
चिकित्सा उपकरण
और रेलवे जैसे
क्षेत्रों को
प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश (FDI) के लिए
खोलना. 
 
4.   नई मानसिकता (New Mindset): सरकार
की भूमिका को
नियामक से सुविधाप्रदाता में बदलना.
  
इन प्रयासों
के तहत भारत
ने विनिर्माण क्षमता
में महत्वपूर्ण वृद्धि
दिखाई है, जो
दुनिया का दूसरा
सबसे बड़ा मोबाइल
निर्माता (99% घरेलू
उत्पादन) और
चौथा सबसे बड़ा
नवीकरणीय ऊर्जा
उत्पादक बन
गया है. रक्षा
निर्यात में
31 गुना वृद्धि हुई
है. विश्व बैंक
की 'डूइंग बिजनेस
रिपोर्ट' में
भारत की रैंकिंग
में उल्लेखनीय सुधार
हुआ (2014 में 142वें
स्थान से 2019 में
63वें स्थान पर),
जो व्यापारिक माहौल
में सुधार को
दर्शाता है.
प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश (FDI) में लगातार
वृद्धि हुई है,
जो 2022 में रिकॉर्ड
$85 बिलियन तक पहुंच
गया.  
 
हालांकि, इन
उपलब्धियों के
बावजूद, सकल घरेलू
उत्पाद में विनिर्माण
क्षेत्र की
25% हिस्सेदारी का
लक्ष्य पूरा नहीं
हो पाया है
(2023 में यह 17.7% पर स्थिर रहा),
और विनिर्माण क्षेत्र
में रोजगार सृजन
में गिरावट आई
है (2017 में 51 मिलियन
से 2023 में 35 मिलियन).
निवेश दरों में
भी गिरावट देखी
गई है. इसके
अतिरिक्त, FDI का
एक महत्वपूर्ण हिस्सा
केवल कुछ क्षेत्रों,
मुख्य रूप से
सूचना प्रौद्योगिकी सेवाओं
में केंद्रित रहा
है, बजाय व्यापक
विनिर्माण के.
भारत के अधिकांश
MSMEs (99% से अधिक)
असंगठित क्षेत्र
में काम करते
हैं, जिससे बड़े
पैमाने पर रोजगार
सृजन की उनकी
क्षमता सीमित हो
जाती है. 'मेक
इन इंडिया' ने
FDI को आकर्षित करने
और विशिष्ट क्षेत्रों
को बढ़ावा देने
में सफलता प्राप्त
की है, लेकिन
सकल घरेलू उत्पाद
में विनिर्माण की
हिस्सेदारी और
रोजगार सृजन पर
इसका समग्र प्रभाव
एक महत्वपूर्ण चुनौती
बनी हुई है.
यह दर्शाता है
कि केवल निवेश
आकर्षित करना
या कुछ क्षेत्रों
में उत्पादन बढ़ाना
व्यापक औद्योगीकरण या
समावेशी रोजगार
वृद्धि में स्वचालित
रूप से परिवर्तित
नहीं होता है.
 
स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा: अन्य सरकारी योजनाएँ (Promoting Local Industries: Other
Government Schemes)
भारत में
स्थानीय उद्योगों
और स्वदेशी उत्पादों
को बढ़ावा देने
के लिए कई
अन्य सरकारी पहलें
भी महत्वपूर्ण भूमिका
निभा रही हैं:
- खादी और ग्रामोद्योग आयोग (KVIC): खादी
     और ग्रामोद्योग अधिनियम, 1956 के तहत
     स्थापित KVIC, ग्रामीण उद्योगों और रोजगार
     को बढ़ावा
     देने में
     महत्वपूर्ण भूमिका
     निभाता है.
     यह प्रधानमंत्री रोजगार सृजन
     कार्यक्रम (PMEGP), हनी मिशन,
     खादी कारीगरों के लिए
     वर्कशेड योजना,
     और पारंपरिक उद्योगों के
     उत्थान के
     लिए निधि
     की योजना
     (SFURTI) जैसी विभिन्न
     योजनाएं लागू
     करता है.
     KVIC का उद्देश्य ग्रामीण समुदायों का समर्थन
     करना, ग्रामीण उद्योग
     के माध्यम
     से उत्पादन
     बढ़ाना और
     उत्पादों की
     बिक्री व
     विपणन में
     सहायता करना
     है. खादी को
     महात्मा गांधी
     ने स्वदेशी
     का प्रतीक
     बनाया था,
     और KVIC इस विरासत
     को आधुनिक
     संदर्भ में
     आगे बढ़ा
     रहा है,
     ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार
     सृजन और
     आत्मनिर्भरता को
     बढ़ावा दे
     रहा है.
 
   
- सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSMEs) को प्रोत्साहन: MSMEs भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़
     हैं. सरकार ने
     MSMEs को क्रेडिट
     गारंटी योजनाओं
     के माध्यम
     से समर्थन
     दिया है,
     जिससे बैंकों
     को इन
     उद्यमों को
     ऋण देने
     में मदद
     मिलती है,
     खासकर संकट
     के समय.
     MSME की परिभाषा
     में भी
     बदलाव किया
     गया है,
     जिसमें निवेश
     सीमा और
     कंपनी के
     टर्नओवर को
     नए मापदंड
     के रूप
     में जोड़ा
     गया है,
     ताकि इन
     उद्योगों को
     विकास के
     लिए प्रोत्साहित किया जा
     सके. सरकारी ई-मार्केटप्लेस (GeM) पोर्टल ने
     MSMEs, विशेष रूप
     से महिला-नेतृत्व वाले
     MSMEs और स्टार्टअप्स को सरकारी
     खरीद में
     भाग लेने
     के लिए
     एक मंच
     प्रदान करके
     सशक्त बनाया
     है. GeM ने पारदर्शिता, दक्षता और
     समावेशन के
     माध्यम से
     सरकारी खरीद
     को नया
     रूप दिया
     है, जिससे लगभग
     10% की लागत
     बचत हुई
     है.  
 
 
- स्टार्टअप इंडिया पहल: 'स्टार्टअप इंडिया'
     पहल का
     उद्देश्य देश
     में एक
     मजबूत स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र
     का विकास
     करना है.
     यह विभिन्न
     योजनाओं जैसे
     स्टार्टअप इंडिया
     सीड फंड
     स्कीम (SISFS), स्टार्टअप्स के
     लिए क्रेडिट
     गारंटी योजना
     (CGSS), और फंड
     ऑफ फंड्स
     फॉर स्टार्टअप्स (FFS) के माध्यम
     से वित्तीय
     सहायता प्रदान
     करता है.
     इन पहलों
     का लक्ष्य
     नवाचार और
     उद्यमिता कौशल
     को बढ़ावा
     देना, विशेष रूप
     से टियर-2
     और टियर-3
     शहरों में
     स्थानीय चुनौतियों का समाधान
     विकसित करना
     है. मध्य प्रदेश
     जैसे राज्यों
     ने भी
     अपनी स्टार्टअप नीतियों के
     माध्यम से
     नए व्यवसायों को प्रोत्साहित करने के
     लिए सकारात्मक हस्तक्षेप किए
     हैं, जिसमें रोजगार
     सृजन अनुदान
     और महिला-नेतृत्व वाले
     स्टार्टअप्स के
     लिए विशेष
     प्रावधान शामिल
     हैं.  
 
 
- रक्षा उत्पादन में स्वदेशीकरण: भारत
     सरकार रक्षा
     क्षेत्र में
     आत्मनिर्भरता पर
     विशेष ध्यान
     दे रही
     है. रक्षा उत्पादन
     में स्वदेशी
     विनिर्माण को
     बढ़ावा देने
     के लिए
     'मेक इन
     इंडिया' के तहत
     कई नीतियां
     और पहलें
     लागू की
     गई हैं.
     इनमें 'मेक-I' (सरकार द्वारा
     वित्तपोषित प्रोटोटाइप विकास), 'मेक-II' (उद्योग वित्त
     पोषित आयात
     प्रतिस्थापन), और 'मेक-III' (प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के माध्यम
     से भारत
     में विनिर्माण) जैसी श्रेणियां शामिल हैं,
     जिनमें स्वदेशी
     सामग्री की
     न्यूनतम प्रतिशत
     आवश्यकता होती
     है. इन प्रयासों के परिणामस्वरूप, भारत का
     रक्षा निर्यात
     2013-14 के ₹686 करोड़ से
     बढ़कर वित्त
     वर्ष 2024-25 में ₹23,622 करोड़ तक
     पहुंच गया
     है, जो 34 गुना की
     वृद्धि दर्शाता
     है. उद्योग लाइसेंस
     प्रक्रिया को
     आसान बनाया
     गया है
     और 'ओपन जनरल
     एक्सपोर्ट लाइसेंस'
     (OGEL) जैसी प्रणालियां शुरू की
     गई हैं,
     जिससे निर्यात
     को बढ़ावा
     मिला है.
     यह दर्शाता
     है कि
     रणनीतिक क्षेत्रों में भी
     भारत अपनी
     स्वदेशी क्षमताओं को मजबूत
     कर रहा
     है. 
 
 
निष्कर्ष (Conclusion)
स्वदेशी आंदोलन
और आधुनिक भारत
की स्वदेशी उत्पाद
संवर्धन नीतियां,
जैसे कि 'आत्मनिर्भर
भारत अभियान' और
'मेक इन इंडिया',
भारत की आत्म-निर्भरता की
एक सतत यात्रा
को दर्शाती हैं.
ऐतिहासिक स्वदेशी
आंदोलन ने ब्रिटिश
शोषण के खिलाफ
एक शक्तिशाली आर्थिक
और राजनीतिक प्रतिरोध
के रूप में
कार्य किया, जिसने
राष्ट्रवाद की
भावना को जगाया
और भारतीय उद्योगों
को पुनर्जीवित करने
की दिशा में
महत्वपूर्ण कदम
उठाए. इस आंदोलन
ने न केवल
विदेशी वस्तुओं के
बहिष्कार को
सफल बनाया, बल्कि
राष्ट्रीय शिक्षा
और सांस्कृतिक पुनरुत्थान
को भी प्रेरित
किया, जिससे एक
समग्र राष्ट्रीय चेतना
का निर्माण हुआ.
हालांकि, इसकी
कुछ सीमाएं भी
थीं, जैसे शहरी
क्षेत्रों तक
सीमित पहुंच और
सांप्रदायिक विभाजन
का जोखिम.  
 
आधुनिक संदर्भ
में, 'आत्मनिर्भर भारत'
और 'मेक इन
इंडिया' जैसी पहलें
स्वदेशी के
मूल सिद्धांतों को
एक वैश्वीकृत दुनिया
के अनुरूप पुनर्परिभाषित करती हैं.
ये नीतियां अलगाव
के बजाय वैश्विक
आपूर्ति श्रृंखलाओं
में भारत की
स्थिति को मजबूत
करने पर केंद्रित
हैं, जबकि घरेलू
विनिर्माण, नवाचार
और रोजगार सृजन
को बढ़ावा देती
हैं. 'मेक इन
इंडिया' ने FDI आकर्षित
करने और मोबाइल
और रक्षा जैसे
विशिष्ट क्षेत्रों
में उत्पादन बढ़ाने
में सफलता दिखाई
है , लेकिन सकल
घरेलू उत्पाद में
विनिर्माण की
हिस्सेदारी बढ़ाने
और व्यापक रोजगार
सृजन के लक्ष्यों
को प्राप्त करने
में अभी भी
चुनौतियां हैं.
MSMEs का समर्थन, खादी
और ग्रामोद्योग का
पुनरुत्थान, और
स्टार्टअप पारिस्थितिकी
तंत्र का विकास
जैसी अन्य सरकारी
योजनाएं इस
आधुनिक स्वदेशी यात्रा
के महत्वपूर्ण घटक
हैं. 
 
यह विश्लेषण
दर्शाता है
कि आत्मनिर्भरता की
दिशा में भारत
का मार्ग ऐतिहासिक
अनुभवों से
प्रेरित है,
लेकिन इसे समकालीन
आर्थिक और भू-राजनीतिक वास्तविकताओं
के अनुकूल होना
चाहिए. नीति कार्यान्वयन
में प्रभावी वितरण
तंत्र और समावेशी
विकास सुनिश्चित करना
महत्वपूर्ण है,
ताकि आर्थिक लाभ
समाज के सभी
वर्गों तक पहुंच
सकें. भविष्य की
सफलता के लिए,
भारत को अपनी
तकनीकी क्षमताओं को
बढ़ाना, नवाचार को
बढ़ावा देना और
अपने विशाल जनसांख्यिकीय
लाभांश का पूरी
तरह से उपयोग
करना होगा. स्वदेशी
की भावना, जो
अतीत में एक
मुक्ति का साधन
थी, आज भी
भारत को एक
मजबूत, समृद्ध और
विश्व मंच पर
एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी
बनाने के लिए
एक प्रेरक शक्ति
बनी हुई है.
 
